भगवान गणेश के मंगल मंत्र में पहला स्मरण वक्रतुंड का आता है. कौन हैं व्रकतुंड? वक्रतुंड महागणपति के अवतार हैं? महागणेश ने वक्रतुंड अवतार क्यों धरा? जानिए भगवान के वक्रतुंड अवतार की कथा. भगवान वक्रतुंड के पूजन का माहात्म्य.
श्रीगणेशजी का एक मंत्र आपने अवश्य सुना होगा. हर मांगलिक कार्य के आरंभ में एक मंत्र अवश्य पढ़ा जाता है.
वक्रतुंड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरू में देव, सर्वकार्येषु सर्वदा।
इस मंत्र में श्रीमहागणपति के वक्रतुंड स्वरूप की सर्वप्रथम आराधना और आह्वान किया गया है. वक्रतुंड अवतार का पूजन गृहस्थों के लिए विशेष कल्याणकारी है. घर में भगवान श्रीगणेश के इसी अवतार का पूजन किया जाता है. महागणेश ने कई अवतार लिए हैं पर वक्रतुंड अवतार विशेष है.
क्या श्रीमहागणेश के भी कई अवतार रूप हैं!
आश्चर्यचकित न हों, श्रीमहागणपति के अनेक स्वरूप और अवतार हैं. जैसे भगवान नारायण के अवतार हैं, भगवान शिव के अवतार हैं, भगवान सूर्य के अवतार हैं उसी तरह महागणपति के भी अनेक अवतार हैं. आपने नारायण के दस अवतार की कथा तो खूब सुनी होगी. शिव के अवतारों की चर्चा सुनी है? 12 ज्योतिर्लिंग शिव के अवतार नहीं है. वे तो भक्तों की प्रसन्नता के लिए लिंग रूप में स्थापित देवाधिदेव महादेव का स्वरूप है. भगवान सूर्य के अवतारों की चर्चा तो आपने शायद ही सुनी होगी. गणपति उत्सव पर मैंंने भगवान श्रीगणेश के अवतारों की बात बताकर आपका कौतूहल बढ़ा दिया.
जी नारायण की तरह महादेव, सूर्य, जगदंबा और गणपति के अनेक अवतार हैं. विशेष कारणों से हुए हैं हर अवतार और विशेष मनोरथ की पूर्ति के लिए पूजे जाते हैं. जो लोग प्रभु शरणम् ऐप्प से लंबे समय से जुड़े होंगे वे सभी लोग इन रहस्यों से परिचित होंगे. अपने मनोरथ के अनुसार अपने आराध्य का ध्यान-पूजन किया होगा क्योंकि प्रभु शरणम् ऐप्प में हम लगातार सब बताते रहते हैं. जो इससे नहीं जुड़े हैं उन्हें जुड़ जाना चाहिए यदि ईश्वर की इन लीलाओं के बारे में जानने की मन में इच्छा है. ईश्वर के स्वरूपों के बारे में जानने को विशेष इच्छा न हो तब तो कोई बात ही नहीं है. यदि लालसा है भगवान के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की तो आपको तत्काल प्रभु शरणम् ऐप्प से जुड़ जाना चाहिए. फ्री ऐप्प है. पसंद न आए तो डिलिट कर दीजिएगा, कौन से पैसे खर्च हो रहे हैं आपके. धर्म के प्रचार के लिए सेवाभाव से बनाया गया है इसे. लिंक दे रहा हूं. इसे क्लिक करके या प्लेस्टोर से प्रभु शरणम् सर्च करके डाउनलोड कर लीजिए.
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आज महागणपति के वक्रतुंड अवतार की कथा सुनाता हूं. भगवान ने वक्रतुंड अवतार क्यों लिया. वक्रतुंड की आराधना से क्या लाभ हैं. यह सब आप जानेंगे. वक्रतुंड अवतार की यह कथा गणेश पुराण से ली गई है, संदर्भ अन्य पुराणों से भी हैं.
महागणपति के प्रथम अवतार भगवान वक्रतुंड की कथा.
देवराज इन्द्र देवताओं के राजा हैं. देवों के समस्त ऐश्वर्य-सामर्थ्य के वह स्वामी हैं. ऐश्वर्य और शक्ति के साथ अभिमान आ ही जाता है. वैसे भी देवराज माता लक्ष्मी के उपासक हैं. राजा तो धन और बल को ही साधने में लगा रहता है. इससे जो भाव उत्पन्न होता है- उसे मत्सर कहते हैं. प्रमाद तो विकार है. देवराज श्रीविष्णु, श्रीब्रह्माजी, श्रीमहादेव, जगदंबा, श्रीमहागणेश आदि देवों एवं ऋषियों-तपस्वियों के दर्शन प्रायः करते ही रहते हैं. उत्तम लोगों के दर्शन से जीव के अंदर बैठा विकार भयभीत रहता है. भयभीत विकार उस शरीर को शीघ्र त्याग देना चाहता है जो अच्छी संगति में रहता हो.
देवराज इंद्र एक समय लगातार त्रिदेवों के दर्शन-पूजन, ऋषियों को प्रणाम आदि कर रहे थे इससे उनके अंदर बैठा प्रमाद व्याकुल हो गया. प्रमाद ने इंद्र के शरीर का त्याग किया तो उससे एक भयंकर असुर का जन्म हुआ- असुर का नाम पड़ा मत्सर. निःसंदेह वह देवराज के शरीर से प्रकट हुआ था किंतु मत्सर विकार का स्वरूप था. वह आसुरी गुणों से युक्त था था इसलिए देवगुरू बृहस्पति आदि ने निर्णय किया कि इसे देवों के बीच स्थान नहीं मिल सकता.
मत्सर आश्रयविहीन हो गया. उसे किसी ने सलाह दी कि तुम शुक्राचार्य के पास जाओ. वही तुम्हें उचित स्थान, सम्मान आदि प्रदान कराएंगे. इस प्रकार इंद्रज मत्सर देवशत्रु असुरों की ओर चला. वह दैत्यगुरु शुक्राचार्य की शरण में पहुंच गया. शुक्राचार्य ने परख लिया कि मत्सर इंद्र के अंश से पैदा हुआ है. अतः देवताओं से ज्यादा शक्तिशाली है. असुर कोटि का होने से इसमें असुरों वाले मायावी लक्षण भी हैं. अतः यही देवताओं को परास्त कर सकता है.
शुक्राचार्य ने मत्सर को और अधिक शक्तिशाली बनाने की ठानी. वह उसके गुरू बन गए और उसे भगवान् शिव के पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय की दीक्षा दी.
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शुक्राचार्य ने मत्सर को भड़काया- यदि इस मंत्र के जप से तुम शिवजी को प्रसन्न कर लो तो जिन देवताओं ने तुम्हारा निरादर करके अलकापुरी से भगाया है वे सब तुम्हारे दास हो जाएंगे. तुम इंद्रज हो, इंद्र के शरीर से जन्मे हो. इंद्र देवराज हैं. इसलिए तुम देवकुमार हुए और सिंहासन पर तुम्हारा अधिकार है. जो उस सिंहासन का अधिकारी है उसे वहां से भगा दिया गया. देवता ऐसा ही अन्याय करते आए हैं. तुम्हें उनके अनुचित कर्म के लिए दंड़ित करना होगा. यही धर्म है.
मत्सर शुक्राचार्य की बात में आ गया और शुक्राचार्य द्वारा बताई विधि से शिव आराधना करने लगा. मत्सर ने भगवान् शिव की घोर तपस्या की. ऐसा तप कि इंद्रासन डोल गया. आखिरकार शिवजी को उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर दर्शन देना ही पड़ा.
भगवान शिव ने प्रकट होकर उससे वरदान मांगने को कहा. मस्तर ने शिवजी से अमरत्व का वरदान मांगा. उससे कम के लिए वह तैयार ही न था.
भोलेनाथ ने मत्सरासुर को कहा- परमात्मा के अतिरिक्त उत्पन्न होने वाले हर जीव का एक दिन क्षय होना निश्चित है. बस समय का अंतर हो सकता है. कोई पहले जाएगा, कोई बाद में परंतु यह विधान मेरा ही तय किया हुआ है. स्वयं देवराज को भी शक्तियां कहीं रखकर स्वरूप त्यागना होगा. उनका स्थान कलप बदलने पर नए इंद्र लेंगे. यही गति अमृतयुक्त देवताओं की भी है. अमृत के कारण उनकी शक्तियां संरक्षित रहती हैं और किसी नए स्वरूप में समा जाती हैं. इसके अतिरिक्त कुछ नहीं होता मेरे प्रिय भक्त. मैं इस नियम को तुम्हारे लिए परिवर्तित नहीं कर सकता. कुछ और मांग लो.
शिवजी द्वारा समझाए जाने पर मत्सरासुर समझ गया. उसने दूसरा वरदान मांगा- हे देवाधिदेव आप मुझे अमर नहीं बनाना चाहते तो मुझे यह वरदान दीजिए कि मैं अभय हो जाऊं. कोई मुझे युद्ध में परास्त न कर सके. मुझे युद्ध में कोई भयभीत न कर सके. मैं अजेय हो जाऊं.
शिवजी ने मत्सर को इच्छित वरदान प्रदान कर दिया और अंतर्धान हो गए.
शिवजी से वरदान प्राप्त करके मत्सर लौटा तो शुक्राचार्य को दैत्यों की अगुवाई करने वाला एक बलशाली राजा मिल चुका था. उन्होंने दैत्यों की सभा बुलाई और मत्सरासुर के प्रभाव से परिचित कराकर दैत्यों को उसे अपना राजा चुनने के लिए मना लिया. मत्सर अब मत्सरासुर कहलाने लगा.
शुक्राचार्य ने मत्सरासुर को आदेश दिया कि दैत्यों की शक्ति को संगठित करो और तीनों लोकों को जीत लो. गुरू का आदेश पाकर मत्सरासुर ने सबसे पहले पृथ्वी विजय आरंभ किया. उसने भूलोक के नरपतियों पर आक्रमण कर दिया. समस्त राजा मत्सरासुर के अधीन हो गए. पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया. उसने देवों को निर्बल करने के लिए यज्ञ-हवन आदि बंद करा दिए. मत्सरासुर ने पृथ्वी के बाद पाताल पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया.
भगवान शिव द्वारा अभय होने का वरदान था इसलिए उसे कोई परास्त नहीं कर पा रहा था. पृथ्वी और पाताल पर अधिकार करने के बाद मत्सरासुर ने स्वर्गलोक पर भी आक्रमण किया. समस्त देवों को पराजित करके स्वर्ग छीन लिया.
समस्त पराजित देवतागण ब्रह्माजी और विष्णुजी को साथ लेकर भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनके भक्त मत्सरासुर के अत्याचारों की पूरी गाथा कह सुनाई.
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