कौन से मनुष्य जन्म से ही अंधे, रोगी होते हैं. किस प्रकार के कर्म वाले मनुष्य नपुंसक हो जाते हैं? महाभारत का यह प्रसंग जीवन के बहुत से नियमों के बारे में बताता है. इसपर अमल करके मनुष्य अपना यह लोक और परलोक दोनों सुधार सकता है.
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युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से कई प्रश्न किए. हे तात पृथ्वी पर कुछ मनुष्य जन्म से नपुंसक होते हैं कुछ बाद में नपुसंक हो जाते है, ऐसा क्यों होता है? मनुष्य जन्म से रोगी जन्म ले ऐसा पूर्वजन्म के किस पाप के कारण होता है? ऐसे कौन से कर्म मनुष्य को करने चाहिए जिससे आगे के जन्मों में उसे सुखी जीवन मिले? युधिष्ठिर ने बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म से ऐसे सैकड़ों प्रश्न पूछे हैं जो मानव जाति के लिए बहुत उपयोगी हैं. ये सारे प्रश्न महाभारत ग्रंथ के अनुशासन पर्व में आते हैं.
भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर 58 दिन रहे और सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की. गंगापुत्र भीष्म परशुराम शिष्य थे. शस्त्र और शास्त्र दोनों में उनकी बराबरी केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते थे. शरशय्या पर पड़े भीष्म के पास युधिष्ठिर नियम से आते थे और उनसे ज्ञानवार्ता की.
मनुष्य के पारिवारिक जीवन, शारीरिक तृप्ति, मानसिक तृप्ति, आध्यात्मिक तृप्ति से लेकर परलोक तक के अनगिनत विषयों पर भीष्म ने चर्चा की है. यह चर्चा खुलकर हुई है. संभोग से लेकर जीवनशैली, पूजा-पाठ, दान, तप, यज्ञकर्म, स्वर्ग-नरक हर विषय पर बात हुई है.
युधिष्ठिर ने प्रश्न किया- कौन सा मनुष्य बुद्धिमान, सुख को भोगने वाला धर्मपरायण होता है. कौम से मनुष्य जन्म से अंधे, रोगी और नपुंसक होते है?
भीष्म पितामह बोले- हे महाराज युधिष्ठिर पार्वतीजी ने पृथ्वीलोक पर रहने वाले मनुष्यों के स्वभाव में विचित्रता देखी तो उन्हें बड़ा कौतूहल हुआ. बाहरी रूप से एक जैसे दिखने वाले मनुष्यों के आचरण में इतना भेद क्यों होता है? उन्होंने यह प्रश्न शिवजी से एकबार किया था. वैसा ही प्रश्न आपने मुझसे पूछा है. शिवजी ने जो उत्तर दिया है वही उत्तम है. उसे कहता हूं.
कौन सुखी, मेधावी पुरुष के रूप में जन्म लेता है? कौन जन्म से अंधे, रोगी और नपुंसक हो जाते हैं?
पार्वतीजी ने भोलेनाथ से पूछा- भगवन! मनुष्यों को देखकर मुझे एक जिज्ञासा हुई है. कुछ तो कुशल, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न, परम बुद्धिमान और धनवान हैं. वहीं कुछ तो ऐसे हैं जिन्हें ज्ञान-विज्ञान से कोई लेना-देना ही नहीं और पूरी तरह से बुद्धिहीन हैं. मनुष्यों में ऐसा अंतर क्यों होता है. हे देव! कुछ लोग जन्म से अन्धे, कुछ रोग से पीड़ित और अनेक नपुंसक हो जाते हैं. इसका क्या कारण है?
महादेवजी ने कहा- हे देवि! जो कुशल मनुष्य सिद्ध, वेदों के ज्ञाता और धर्मज्ञ ब्राह्मणों से प्रतिदिन उनका कुशलक्षेम पूछते हैं. उसी उत्तम ब्राह्मण की तरह अशुभ कर्मों का परित्याग करके शुभकर्म करते हैं, वे परलोक में स्वर्ग और इहलोक(भूलोक) में सदा सुख पाते हैं.
ऐसे आचरण वाले मनुष्य को यदि स्वर्ग से लौटकर फिर से मनुष्य योनि मिलती है तो वह मेधावी होता है. जो परायी स्त्रियों के प्रति सदा दोषभरी दृष्टि डालते हैं, ऐसे लोगों का जन्म दोबारा होता है तो वे जन्म से अन्धे होते हैं.
जो गंदे विचारों के साथ किसी वस्त्रहीन स्त्री को निहारते हैं, वे पापकर्मी मनुष्य इस लोक में किसी न किसी रोग से पीड़ित अवश्य होते हैं.
जो दुराचारी, दुर्बुद्धि एवं मूढ़ मनुष्य पशु आदि के साथ मैथुन करते हैं वे पुरुषों में नपुंसक होते हैं. इसके अलावा जो पशुओं की हत्या कराते हैं जीवन में आगे चलकर नपुंसक हो जाते हैं.
जो गुरु की शय्या पर सोते हैं, गुरुपत्नी के प्रति आसक्ति रखते हैं वे भी नपुंसक हो जाते हैं.
जो वर्णसंकर जाति की स्त्रियों के साथ समागम करते हैं, वे मनुष्य भी नपुंसक होते हैं.
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जीवन के सुख भोगने का अधिकारी कौन मनुष्य बनता है?
पार्वतीजी ने पूछा- कौन-सा कर्म करके मनुष्य कल्याण का भागी होता है?
महादेव ने बताया- जो श्रेष्ठमार्ग को पाने की इच्छा रखकर सदा ही विद्वानों से परामर्श करता है वह कल्याण के योग्य होता है. जो धर्म के बारे में जानने की अभिलाषा रखता है वह कल्याण का अधिकारी होता है. धर्म से सीखे सद्गुणों पर चलता है, वही स्वर्गलोक के सुख का अनुभव करता है. हे देवि! ऐसा मनुष्य यदि पुनः कभी मानवयोनि को प्राप्त होता है तो वह मेधावी होता है. उसमें धारण शक्ति होती है. वह अपने परिश्रम से उन सभी चीजों को प्राप्त कर लेता है जिसके लिए अन्य लोग लालायित रहते हैं.
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मनुष्य के स्वभाव में इतनी भिन्नता क्यों है? धर्म का उपहास करने वाले मनुष्य कौन हैं?
पार्वतीजी ने पूछा- भगवन! बहुत से मनुष्य धर्म का आचरण करते हैं पर कुछ मनुष्य धर्म का उपहास करते हैं. मनुष्य में इस प्रकार के परस्पर विरोधी स्वभाव का क्या कारण है?
शिवजी ने इसके उत्तर में कहा- देवि! जो मोह में फंसकर अधर्म को धर्म कहते हैं, वे व्रतहीन मर्यादा को नष्ट करने वाले पुरुष ब्रह्मराक्षस कहे गए हैं. वे मनुष्य यदि कालयोग से इस संसार में मनुष्य होकर जन्म लेते हैं तो वे धर्म से रहित नीच होते हैं. देवि! यह धर्म का समुद्र, धर्मात्माओं के लिये प्रिय और पापात्माओं के लिये अप्रिय है.
यह प्रसंग महाभारत के अनुशासन पर्व के दान दानधर्म पर्व में अध्याय 145 में शिव-पार्वती संवाद के रूप में आया है. महाभारत को पांचवा वेद क्यों कहा जाता है इसके मूल में मुझे दो बातें समझ में आती हैं. पहली, श्रीमद्भगवदगीता इसी महाभारत का अंश है. भगवदगीता के व्यवहारिक ज्ञान के बारे में बताने की आवश्यकता नहीं. दूसरी बात महाभारत का अनुशासन पर्व. जिन बिंदुओं की चर्चा गीता में नहीं हो पाती उन सारे विषयों की चर्चा अनुशासन पर्व में है.
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प्रभु शरणम् ऐप्प में हम जन्माष्टमी के दिन से महाभारत में वर्णित ज्ञानप्रद विषयों में से एक प्रसंग प्रतिदिन व्याख्या के साथ देने की शृंखला आरंभ करेंगे. आप तत्काल प्रभु शरणम् ऐप्प से जुड़ जाएं. इस लाइन के नीचे लिंक है, क्लिक करके प्लेस्टोर से डाउनलोड कर लें.
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यदि आपको अच्छा वक्ता बनना है, अपनी बातों से लोगों पर छाप छोड़नी है तो महाभारत का मूल आपको समझना होगा. उस पर मंथन करना होगा. महाभारत सिर्फ एक कथासागर नहीं, ज्ञान सागर है. प्रभु शरणम् में हम इस सागर से कुछ मोती चुनकर आपके लिए लाने का संकल्प लेते हैं.
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