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ऋषभदेव के बाद भरत ने लम्बे समय तक जम्बूद्वीप पर राज किया. भरत ने ज्येष्ठ पुत्र को सम्राट बनाकर संन्यास ले लिया और पुलह ऋषि के आश्रम के पास रहने लगे.

एक दिन भरत नदी में स्नान कर रहे थे. एक गर्भवती हिरणी नदी में पानी पीने आई लेकिन तभी एक शेर की दहाड़ सुनकर उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी.

छलांग के कारण उसका बच्चा गर्भ से बाहर नदी में ही गिर पड़ा और डूबने लगा. पीड़ा से हिरणी ने दम तोड़ दिया. भरत का मन मृगशावक के लिए द्रवित हो उठा.

उन्होंने मृगशावक को बचाया और अपने आश्रम ले आए. वह उसका माता की तरह पालन करने लगे. अपना राजपाट त्यागकर निर्मोही बन चुके भरत मृग के मोह में डूबते चले गए.

उस मृग के मोह में डूबे भरत ईश्वर भक्ति भूल चुके थे. उन्हें हमेशा उसी मृग की ही चिंता रहती थी. मृग के मोहपाश में बंधे भरत ने समय आने पर प्राण त्याग दिया.

मरते समय भी भरत ने ईश्वर की जगह मृग को ही याद किया. इसी कारण अगले जन्म में वह मृग बने. पूर्वजन्म के पुण्य प्रभाव से भरत को पूर्वजन्म का स्मरण था.

भरत को इस बात का पछतावा रहता कि नारायण के पुत्ररूप में जन्म मिला, उनसे ही ज्ञान मिला और मोहबंधन तोड़कर संन्यासी हुए लेकिन एक मृग से मोह के कारण मोक्ष नहीं मिला.

इस जन्म में वह अपने कर्मों के लिए विशेष सचेत थे. मृगरूप में भी भरत पुलह के आश्रम के पास ही रहते थे. ऋषियों के मुख से ईश्वर स्तुति सुनते.

समय आने पर उन्होंने पशु देह को त्याग और पुनः मानव रूप में जन्म लिया. इस बार वह एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे.

भरत अपना पूर्व जन्म नहीं भूले थे. वे अब किसी मोहबंधन में बंधना नहीं चाहते थे. इसलिए सांसारिकत से फंसने से बचने के लिए मूर्ख होने का दिखावा करते.

उनके पिता ने शिक्षा देने का बहुत प्रयास किया लेकिन भरत ने जान-बूझकर कुछ भी न सीखा. विद्याहीन होने के कारण उनका नाम जड़ भरत पड़ गया.

पिता की मृत्यु के बाद भाइयों ने भरत को खेती के काम में लगा दिया. वे उनसे खूब मेहनत कराते और भोजन थोड़ा देते लेकिन भरत तनिक भी दुखी न होते.

एक रात जड़ भरत खेतों पर पहरा दे रहे थे तभी डाकू उन्हें नरबलि के लिए उठा ले गए. डाकुओं ने उन्हें खिला-पिला कर सजाया और बलि की तैयारी पूरी की.

सब देखते समझते हुए भी भरत दुखी न थे. उन्होंने न तो डाकुओं से मुक्त करने की प्रार्थना की और न ही अपने वध की बात से दुखी हुए. वह सहर्ष बलि के लिए तैयार हुए.

पुजारी ने बलि के लिए तलवार उठायी तो देवी साक्षात प्रकट हो गईं. देवी ने डाकुओं को मार डाला और भरत के प्राणों की रक्षा हो गई. भरत फिर भटकने लगे.

एक दिन भरत कहीं चले जा रहे थे कि राजा रहूगण की सवारी निकली. पालकी उठाने वालों ने देखा कि एक हट्टा-कट्टा पागल घूम रहा है तो उन्होंने साथ ले लिया.

भरत पालकी उठाए चलने लगे लेकिन उनकी नजर भूमि पर रहती कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा उनके पैरों से न दब जाए. पालकी डगमगाने लगी तो राजा क्रोधित हुआ.

राजा ने कहारों को डांटा तो कहारों ने कहा कि इस नए कहार के कारण यह हो रहा है. राजा ने भरत को काफी गालियां दीं पर वह चुपचाप सुनते हुए मुस्कुराते रहे.

राजा का क्रोध अब आपे से बाहर हो गया था. उसने कहा- तुम जान-बूझकर मुझे कष्ट पहुंचा रहे हो. मैं राजा हूं और इस कार्य के लिए तुम्हें प्राणदंड दे सकता हूं.

भरत ने कहा- आपको राजा होने का दंभ है. इसलिए आप स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं और मानते हैं कि आपको दण्ड का अधिकार है. किन्तु आप किसे दण्डित करेंगे?

इस शरीर को दंडित करेंगे जो पंचभूतों से बना है, विकारों से युक्त है लेकिन यह मेरा है ही नहीं. जो मैं हूं वह तो आत्मारूप है जिसे देखा भी नहीं जा सकता तो दण्डित कैसे करेंगे?

कहार के मुख से ज्ञान की बातें सुनकर रहूगण पालकी से उतरे और भरत को प्रणाम किया. राजा ने कहा-मैं कपिल मुनि के पास ज्ञान के लिए जा रहा था, सौभाग्य से आप मिल गए. आप ही मुझे शिक्षा दें.

शरण में आए राजा को भरत ने ज्ञान देना आरंभ किया- मानव का संसार में भटकाव का एकमात्र कारण उसका मन है. मन, सतो-रजो और तमो गुणों के प्रभाव से भटकता है.

दीपक में जलती हुई तो बाती दिखती है लेकिन यथार्थ में बाती नहीं जलती बल्कि दीए का घी जलता है. उस अग्नि में जो तेज और रंग है वह घी का है बाती का नहीं.

जब घी समाप्त हो जाता है तब बाती का सूत जलता है. ऐसे ही सत-रज-तम त्रिगुणों में लिप्त सांसारिकता में फंसा जो कर्म करता है वह मिथ्या है.

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा, पिपासा, व्याधि आदि से मुक्त हुए बिना जीव स्वयं को जान ही नहीं सकता. जो स्वयं को न जाने वह ईश्वर को क्या पहचानेगा.

गृहस्थ आश्रम के बंधनों को तोड़े बिना ईश्वर नहीं मिलते. “यह मेरा है” का मोह त्यागो क्योंकि तुम्हारा कुछ भी नहीं. सब श्रीहरि की माया है.

संसार का मोह त्यागकर श्रीहरि की सेवा में लगो और मोक्ष का मार्ग तलाशो, यही जीवन का मूल कर्म है.

मित्रों हम जल्द ही तीर्थाटन शृंखला आरंभ करने जा रहा हैं. इसमें हम देश के सभी बहुत प्रसिद्ध अथवा किसी कारण से कम प्रसिद्ध तीर्थों से परिचित कराएंगे. हमारा उद्देश्य है अपने देश के कोने-कोने में बसे पवित्रस्थलों के महात्म्य से दुनिया को परिचित कराना, उन तीर्थों के दर्शन के लिए लोगों को राह दिखाना.

आप सभी भी अपने आस-पास के तीर्थों के बारे में सूचनाएं भेजें. हम उसे आपके नाम से प्रकाशित करेंगे. रविवार को इस सीरिज का एक लेख दिया जाएगा ताकि आपको अंदाजा हो कि किस तरह की सूचनाएं भेजनी हैं. आइए हम सब मिलकर हिंदुत्व के अद्भुत तीर्थाटन पर चलें.

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