शास्त्रों में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को ओंकारेश्वर धाम में परमेश्वर लिंग का दर्शन उत्तम फलदायक और मोक्षदायक बताया गया है. आज वैशाख शुक्ल चतुर्दशी पर आपके लिए लेकर आया हूं ओंकारेश्वर धाम की पौराणिक कथा.
एक बार नारद ऋषि महादेव की आराधना में लीन थे. कुछ समय तक आराधना में बिताने के बाद वह गिरिराज विन्ध्य पर पहुंचे. विन्ध्य ने नारदजी का बड़ा सत्कार किया.
सत्कार करते हुए बातों-बातों में विंध्य ने अपना बखान आरंभ कर दिया. विंध्य ने कहा- मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं. मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है किसी वस्तु की कमी नहीं है.
विन्ध्य की बातों से उनका अहंकार झलक रहा था. विंध्याचल जैसे श्रेष्ठ पर्वत को गर्व से चूर देखकर नारदजी को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने उसके अहंकार का नाश करने का मन बनाया.
विन्ध्य ने जैसे ही अपनी बात समाप्त की नारदजी ने उलाहना देने के अंदाज में गहरी सांस खींची और शांत हो गए. उनके मुख पर कोई भाव नहीं था. विंध्याचल समझ गए कि नारदजी को कुछ कमी खली है.
विन्ध्य पर्वत ने पूछा- देवर्षि आपको मेरे पास किस साधन-संपदा की कमी दिखाई दी? आपने असंतोष में भरी लम्बी सांस खींची है यह किस कारण था?
नारद जी बोले- विन्ध्यांचल आपके पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत आपसे बहुत ऊंचा है. उस पर्वत के शिखर देवलोक को छूते हैं. मुझे लगता है कि आपके शिखर वहां तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे.
इस प्रकार कहकर नारदजी वहां से चले गए. उनके जाने पर विन्ध्यांचल को बहुत पछतावा होने लगा. अपने शिखर की ऊंचाई कम जानकर वह मन ही मन शोक करने लगा.
उसने निश्चय किया कि अब वह भगवान शिव की आराधना और तपस्या करेगा और वरदान में अपने शिखर की ऊंचाई ऐसी मांगेगा जो देवलोक को छूते हों.
विंध्यांचल ने भगवान शंकर की आराधना आरंभ कर दी. जहां पर साक्षात ओंकार विद्यमान हैं वहा पहुंचकर उसने मिट्टी का शिवलिंग बनाया और छ: महीने तक लगातार शिवपूजन में मनोयोग से लगा रहा.
वह शम्भू की आराधना-पूजा के बाद निरन्तर उनके ध्यान में तल्लीन हो गया और अपने स्थान से इधर-उधर नहीं हुआ. उसके कठोर तप से भगवान शिव उसपर प्रसन्न हो गए.
महादेव ने विन्ध्यांचल को अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर दिखाया. वह विन्ध्यांचल से बोले- ‘विन्ध्य! मैं तुम पर प्रसन्न हूं. मैं भक्तों को उनका अभीष्ट वर प्रदान करता हूं, बोलो तुम्हें क्या चाहिए.
विन्ध्य ने कहा- ‘देवेश्वर महेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो भक्तवत्सल! हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली वह अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें!’.
विन्ध्य पर्वत की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान भोलेनाथ ने कहा- पर्वतराज! मैं तुम्हें वह उत्तम बुद्धि प्रदान करता हूं. तुम जिस प्रकार का काम करना चाहो, वैसा कर सकते हो.
भगवान शिव ने जब विन्ध्य को वर दिया, उसी समय देवगण तथा कुछ ऋषिगण वहां पधारे. उन्होंने महादेव की स्तुति करके कहा- ‘प्रभो! आप हमेशा के लिए यहां स्थिर होकर निवास करें.
देवताओं की बात से भगवान शिव को बड़ी प्रसन्नता हुई. लोकों को सुख पहुंचाने वाले परमेश्वर शिव ने उन ऋषियों तथा देवताओं की बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया.
वहां स्थित एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया. प्रणव के अन्तर्गत जो सदाशिव विद्यमान हुए, उन्हें ‘ओंकार’ नाम से जाना जाता है. इसी प्रकार पार्थिव मूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, वह ‘परमेश्वर लिंग’ के नाम से विख्यात हुई.
परमेश्वर लिंग को ही ‘अमलेश्वर’ भी कहा जाता है. इस प्रकार भक्तजनों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले ‘ओंकारेश्वर’ और ‘परमेश्वर’ नाम से शिव के ये ज्योतिर्लिंग जगत में प्रसिद्ध हुए.
इस प्रकार भगवान शिव के प्रादुर्भाव और निरन्तर निवास से विन्ध्याचल पर्वत को बड़ी प्रसन्नता हुई. विंध्यांचल को अभीष्ट वर मिल गया, महादेव का निवास हो गया इससे पर्तश्रेष्ठ के मन की पीड़ा समाप्त हो गई.
शिव पुराण में कहा गया है कि जो मनुष्य भगवान शंकर का पूजन कर निरन्तर ध्यान करता है, उसे दोबारा माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है अर्थात उसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. (शिव पुराण से)