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आंध्रप्रदेश में स्थित तिरूपति बालाजी के मंदिर और उनके महात्म्य से सभी परिचित हैं. आपने बार-बार सुना होगा कि यह सबसे अमीर मंदिर है. यह सुनकर मन थोड़ा आहत होता है.

भक्तों को उनकी सारी मनोकमानाएं पूरी कर धन-धान्य से पूर्ण करने वाले हमारे प्रभु बालाजी तो स्वयं कुबेर के ऋण बंधे वहां स्थित है. भक्तों को वैभव प्रदान कर उनसे कुछ अंश लेकर कुबेर का कर्ज चुका रहे हैं.

तिरूपति बालाजी पर आने वाले अरबों के दान के पीछे यही कारण है. भगवान भक्तों को जो दे रहे हैं उनमें से कुछ भक्तों से वापस मांग लेते हैं ऋणमुक्ति के लिए. बहुत दिनों से अनुरोध आ रहा था तो आपको आज बालाजी की विस्तृत कथा सुनाता हूं.

एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया. यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गई. तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई.

ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष तो देवगण ग्रहण करते थे लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी. यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरूरी था जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करें.

ब्रह्मा-विष्णु-महेश परमात्मा थे. इनमें से श्रेष्ठ कौन है इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे. भृगु ने इसका दायित्व संभाला. वह देवों की परीक्षा लेने चले. ऋषियों से विदा लेकर वह सर्वप्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुंचे.

ब्रह्माजी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया. इससे ब्रह्माजी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया. भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं. पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता?
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