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दिवोदास के कानों तक भी विष्णु लोक के वैभव की बात पहुंची तो उसने पुण्यकीर्ति को बुला उपदेश सुना.

विष्णुजी ने कहा- अभी तक तो सब ठीक है पर पूरे जीवन में न जाने कब जाने अनजाने कौन सा अधर्म हो जाए पता नहीं.

इस अधर्म से पुण्य घट जायें और बैकुंठ कहीं आपको न मिले इससे तो बेहतर है कि राजा दिवोदास आप इसी समय बैकुंठवासी हो जाएं क्योंकि आप बैकुंठ प्राप्त करने की योग्यता अभी रखते हैं.

मेरा तो परामर्श है कि आप काशी का मोह त्यागें और बैकुंठ चले जायें, पर यह आपकी इच्छा है कि बैकुंठ जाएं या यहीं रहेंगे.

राजा दिवोदास को बात जंच गयी.

दिवोदास ने विष्णुजी से कहा कि मेरे बैकुंठ जाने का मार्ग बताइए. मैं अब और यहां नहीं रहना चाहता.

तब श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिया. श्रीहरि के दर्शन से दिवोदास को बैकुंठ तो स्वतः सुलभ हो गया. वह तत्काल विष्णुलोक जाने को सहर्ष तैयार हो गया.

गरुड़जी विष्णुजी के संदेशवाहक बने और सारी घटना का विस्तृत वर्णन शिवजी को जा सुनाया.

अपने साथ लेकर जाने से पूर्व श्रीविष्णु ने दिवोदास को शिवजी की पूजा के लिए प्रेरित किया. दिवोदास ने अत्यंत भक्तिपूर्वक दिवोदासेश्वरलिंग की स्थापना की और पूजन किया.

इसके बाद शिवजी माता पार्वती और देवताओं के साथ काशी पधारे. शिवजी ने गणेशजी की बड़ी प्रशंसा की.

हर्ष से भरकर शिवजी ने कहा- यह वाराणसी जो मेरे लिए दुष्प्राप्य गो गई थी गणेश ने अपनी बुद्धि से इसे सुलभ कराया. गणेश के बुद्धि विवेक की कोई बराबरी नहीं है. मैंने अपने हृद्य में बसने वाली काशी को सूर्य को समाप्त कर देने का आदेश दिया था किंतु गणपति के विवेक से काशी भी बची और देवताओं को सुलभ भी हुई.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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