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गणेशजी ज्योतिषी का वेष धरकर काशी पहुंचे और वहां अपना आवास एक मंदिर में बनाया. ज्योतिषी का ख्याति शीघ्र ही फैल गई.
रानी लीलावती ने राजा दिवोदास से कहा कि नगर में इतने बड़े ज्योतिषी पधारे हैं. उन्हें आदरसहित महल में लाकर उनकी सेवा करके आशीर्वाद लीजिए. दिवोदास ने ऐसा ही किया.
ज्योतिषी बने गणेशजी महल में आए. राजा ने उनसे कहा कि आप मेरा भविष्य फल वांचिए.
गणेशजी ने कहा- अठारह दिन बाद एक ब्राह्मण तुम्हारे पास पहुँचकर सच्चा उपदेश करेगा. उसके उपदेश मानो तो लाभ होगा.
दिवोदास अत्यंत प्रसन्न हुआ. विष्णुजी की योजना सफल हो रही थी. इस बीच गणेशजी ने उन सभी गणपति मंदिरों में जो दिवोदास के राजा बनने के पूर्व स्थापित थे वहां रूप बदलकर वास कर लिया.
अठारहवें दिन श्रीविष्णुजी कथावाचक विद्वान ब्राह्मण के वेश में दो शिष्यों के साथ काशी आये. शिष्यों के रूप में लक्ष्मीजी और गरूड़ वेष बदलकर आए थे.
विष्णुजी ने अपना नाम पुण्यकीर्त, गरुड़ का नाम विनयकीर्त तथा लक्ष्मीजी का नाम गोमोक्ष बताया.
राजा को समाचार मिला तो गणपति की बात को याद करके उसने पुण्यकीर्ति का स्वागत किया और पूछा क्या चाहते हैं.
विष्णुजी ने कहा- आपकी पुण्य नगरी में कथा वार्ता की अनुमति. मैं जिस स्थान पर भी चाहूं वहां कथा कर सकूं. उसमें कोई विघ्न नहीं आना चाहिए. इसके लिए आपको वचन देना होगा. हे राजन! आप इस वचन से बंधे रहेंगे और मुझे कभी रोकेंगे नहीं.
राजा दिवोदास को इसमें क्या आपत्ति होती, उसने अनुमति भी दी और अपनी तरफ से पूरे सहयोग का आश्वास्न भी दिया.
पुण्यकीर्ति रूप में श्रीविष्णु काशी में वैकुंठलोक के वैभव की कथायें घूम-घूमकर सुनाने लगे. काशी में कहीं पाप तो था ही नहीं इसलिए विष्णुजी ने पाप-पुण्य की चर्चा के स्थान पर बैकुंठ के ऐश्वर्य की चर्चा ही छेड़ी.
बैकुंठ लोक इतना भव्य है, इतने ऐश्वर्य वाला है- जनता ने यह सब सुना तो उसकी बैकुंठ में बड़ी रूचि होने लगी. सब ओर बैंकुठ धाम की महिमा ही छा गई. जनता तो अब सब भूलकर बैकुंठ का बखान करने लगी.
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