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रिपुंजय ने ब्रह्माजी से कहा- हे प्रजापालक ब्रह्मदेव इस विशाल वसुंधरा पर अऩेक राजा हैं फिर प्रजा-पालन का आदेश मुझे ही क्यों दिया जा रहा हैं, यह समझ नहीं पा रहा हूं?
ब्रह्माजी ने कहा- तुम सभी प्रकार से धर्माचरण युक्त हो. इसी कारण देवराज इंद्र तुम्हारे राज्य में सुवृष्टि करने में स्वयं को गौरवान्वित समझते हैं. ऐसा राजा ही प्रजापालक बनने का अधिकारी है. किसी धर्मविहीन को यह अधिकार मैं दे दूं तो सर्वत्र दुख-दारिद्रय का साम्राज्य हो जाएगा.
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रिपुंजय ने कहा- हे पितामह आप इस धरा का पालन करने में स्वयं समर्थ हैं परंतु दयालु होने का कारण आप मुझे यह सौभाग्य दे रहे हैं. आपके द्वारा प्रदान की गई इस कृपा और यश से मैं धन्य हूं और स्वीकारता हूं किंतु मेरा एक निवेदन है.
ब्रह्माजी ने कहा- रिपुंजय मैं तुम पर प्रसन्न हूं. यदि तुम्हें इसके अतिरिक्त भी कुछ चाहिए तो मांग लो. अमरत्व के सिवा मैं तुम्हें सबकुछ देने को तैयार हूं.
रिपुंजय ने कहा- मैं धरती का शासन-सूत्र तभी स्वीकार करुंगा यदि देवतागण पृथ्वी को छोड़कर अमरावती में ही वास करें. वे पृथ्वी पर न आएं. नाग आदि भूतल में नागलोक में ही वास करें ताकि पृथ्वी की पूरी व्यवस्था मैं अपनी सुविधा से चला सकूं.
ब्रह्माजी ने रिपुंजय को उसका इच्छित वरदान प्रदान कर दिया.
देवताओं को पृथ्वी को छोड़कर अमरावती को जाना पड़ा. नाग आदि नागलोक चले गए. देवस्थानों में अब देवविहीन हो गए थे.
शिवजी भी ब्रह्माजी के वरदान की लाज रखने के लिए मंदारपर्वत पर तप के लिए चले गए. ज्यादातर देवताओं ने भी उनके साथ मंदर पर ही वास शुरू किया.
श्रीविष्णु ने समस्त वैष्णव तीर्थों का त्याग कर दिया और महादेवजी के पास ही रहने लगे.
अब रिपुंजय राजा दिवोदास के रूप में निर्विघ्न वसुंधरा का शासक हो गया. उसने ही प्रजा को बताना शुरू किया कि समस्त देवताओं का कार्य भी वही करता है.
प्रजा हर प्रकार से सुखी थी इसलिए वह उसे ही देवता मानने लगी. दिवोदास देवता की तरह देवालयों में पूजा जाता. वही सभी देवताओं का रूप धारण करके प्रजा को दर्शन भी देता. देवतागण निरंतर लज्जित होते.
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