नारदजी भगवान विष्णु की माया को समझ ही न पाते थे. एक बार उन्होंने भगवान श्रीहरि अपनी माया से अवगत कराने का हठ कर दिया. नारद श्रीहरि को प्रिय हैं इसलिए देवर्षि की शंकाओं के निवारण के लिए प्रभु मान गए.
भगवान और नारदजी ने ब्राह्मण का वेश धरा और विदिशा नगरी पहुंचे. वेत्रवती नदी के तटपर स्थित यह नगरी धन-धान्य से संपन्न थी. यहीं पर सीरभद्र नामक एक समृद्ध व्यापारी रहता था.
वह था तो वैश्य पर व्यापार के साथ-साथ पशुपालन में तत्पर और खेती में भी निपुण था. दोनों सीरभद्र के वहां पधारे. उसने बाह्मणों का आदर-सत्कार के बाद कहा यदि कोई बाधा न हो तो तो कृपया अपनी रूचि के अनुसार मेरे यहां भोजन करें.
भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया- सीरभद्र, तुम्हारा वंश बढे अनेक पुत्र पौत्र हो, सब मिलकर तुम्हारे कार्य व्यापार में वृद्धि करें. अन्न और पशु धन से तुम और अधिक सम्पन्न हो, यह मेरा आशीर्वाद हैं. इतना कहकर भगवान नारद के साथ चल दिए.
भगवान और नारद जी विदिशा नगरी से चले तो मार्ग में गंगा नदी पड़ी. यहां का तट अत्यंत सुंदर था. नदी के तट पर स्थित वेणिका नाम का छोटा सा गांव था. गाँव में गोस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था.
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