बात त्रेतायुग की है. कुंडलपुर के राजा सुरथ बहुत परोपकारी और धार्मिक प्रवृति के थे. यथा राजा तथा प्रजा. प्रजा भी उतनी ही सत्कर्मी, धार्मिक और परोपकारी थी.
यमराज ने भूलोकवासियों के पाप-पुण्य हिसाब लगाया तो यह देखकर हैरान हुए कि कुंडलपुर के निवासियों को नरक नहीं भोगना पड़ा है. सभी स्वर्ग के अधिकारी बने हैं.
यमराज को अचरज हुआ. वह स्वयं इसका पता लगाने के लिए एक महात्मा का वेश बनाकर कुंडलपुर नरेश सुरथ के दरबार में पहुंच गए.
तेजस्वी महात्मा को देखकर सुरथ प्रसन्न हो गए और उनसे हरिकथा सुनाने का अऩुरोध किया.
महात्मा ने कहा- कथा सुनने से क्या होगा. सबको अपने कर्मों का फल भोगना ही है. इसलिए हरिकथा सुनने के भ्रम में न पड़ें. सत्कर्म करें वही साथ जाएगा.
सुरथ बोले- आप महात्मा होकर ऐसा मानते हैं. प्रभु नाम लेते रहें तो सत्कर्म होते रहेंगे. कर्मफल समाप्त होने पर देवराज इंद्र का भी पतन हो जाता है, लेकिन हरिभक्त ध्रुव अपने स्थान पर अटल हैं.
सुरथ की भक्ति देखकर यमराज प्रसन्न हुए. अपने वास्तविक रूप में आकर सुरथ से वरदान मांगने को कहा. राजा ने मांगा- जब तक हरि के दर्शन न हो जाएं तब तक मेरी मृत्यु न हो.
यमराज ने बताया कि जल्द ही भगवान विष्णु का रामावतार होगा. प्रभु उस युग में मानव लीला करेंगे. उन्हीं के रूप में तुम्हें हरि के दर्शन होंगे.
शीघ्र ही राजा सुरथ को सूचना मिली कि अयोध्या के राजा दशरथ के यहां श्रीराम का अवतार हो गया है. श्रीराम के दर्शन की आस में वह उनकी हर सूचना लेते रहते थे.
जब प्रभु ने राजसिंहासन संभालने के बाद अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा तो सुरथ को अपना मनोरथ पूरा होता नजर आया.
उन्होंने यज्ञ के घोड़े को रोकने का निश्चय किया. अश्व की रक्षा में चल रहे शत्रुघ्न से सुरथ का घोर संग्राम हुआ. सुरथ ने शत्रुध्न को सेना समेत बंदी बना लिया.
शत्रुघ्न की रक्षा के लिए अंगद और हनुमानजी भी आए. राजा सुरथ ने सबको रामास्त्र के बल पर बांध लिया.
सुरथ ने उनसे कहा- मैंने आप सबको रामास्त्र से बांधा है जिसे काटने का सामर्थ्य आपमें नहीं है. यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने स्वामी को युद्ध के लिए भेजें.
हनुमानजी से राजा सुरथ का मर्म छिपा नहीं था. उन्हें श्रीराम का वरदान था उनका हर अस्त्र उन पर प्रभावहीन रहेगा लेकिन रामभक्त सुरथ का मनोरथ पूरा करने के लिए वह बंधे रहे.
लक्ष्मण ने सुना तो तुरंत कुंडलपुर जाकर सुरथ को दंड देने को तैयार हो गए. श्रीराम ने लक्ष्मण को रोका और कहा- बिना मेरे गए यह विघ्न नहीं टलने वाला.
प्रभु स्वयं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कुंडलपुर पहुंच गए. श्रीराम को देख सुरथ ने शस्त्र फेंके और प्रभु के चरणों में गिर गए. सुरथ ने कहा कि उनके दर्शनमात्र के लिए उन्होंने काल को रोक रखा है.
श्रीराम ने उन्हें अपने दिव्य रूप के दर्शन दिए. प्रभु ने सुरथ से वर मांगने को कहा. प्रभु दर्शन पाकर सुरथ धन्य हो गए और कहा अब कोई और कामना नहीं है.
फिर भी यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो सेवा का अवसर दीजिए. अश्वमेध का यह कार्य पूरा करने में मुझे सेवा में ले लीजिए.
श्रीराम ने हंसकर कहा-आपने मेरे अनुज और मित्रों को बांध रखा है. मैं तो ऐसे ही बंध गया हूं. आपकी इच्छा कैसे पूरी नहीं होगी.
सुरथ प्रभु के चरणों में एक बार फिर नतमस्तक हो गए. शत्रुघ्न, हनुमान, अंगद आदि को मुक्त किया और अश्व के साथ रामसेना में शामिल होकर चलने लगे.
भगत के वश में है भगवान. ।।जय श्रीराम।।
संकलन व संपादन: राजन प्रकाश