देवलोक की कन्या मां गंगा को एक शाप के कारण जन्मने पड़े बच्चे. किसने दिया था मां गंगा को गर्भवती होने का शाप? क्यों मां गंगा को अपने पुत्रों को जन्मते ही मारना पड़ा? मां गंगा की सुंदर पौराणिक कथा.
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देवलोक की कन्या और इंद्र के दरबार में प्रतिष्ठित आसन पाने वाली मां गंगा की यह कहानी बहुत करूणापूर्ण है. देवकन्याओं को भूलोक पर आकर संतान जन्म नहीं देना होता. परंतु मां गंगा को ऐसा करना पड़ा. आइए आनंद लें मां गंगा की सुंदर कथा का.
इक्ष्वाकु वंश में एक से एक प्रतापी राजा हुए. उनमें से एक थे महाभिष. महाभिष ने प्रजा का पालन करते हुए अनेक अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किए और राजर्षि के पद पर आसीन होकर स्वर्ग के अधिकारी बने.
इंद्र उन्हें विशेष सम्मान देते थे. एक बार इंद्र के लोक में गायन-वादन का कार्यक्रम चल रहा था. तभी ब्रह्माजी कुछ कार्यवश स्वर्ग में पधारे.
देवतागणों और मौजूद सभी राजर्षिगण जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्माजी की अगवानी और प्रणाम करने के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुए. तभी वहां पर मां गंगा जी का भी आगमन हुआ.
मां गंगा के साथ-साथ पवनदेव भी उपस्थिति हुए. पवनदेव ब्रह्माजी को प्रणाम करने उठे तो उनके वेग के कारण श्वेतवस्त्रों में सुसज्जित गंगाजी के वस्त्र शरीर से थोड़े सरक गए.
उनका आंचल सरककर गिर गया. यह देखकर समस्त देवताओं और राजर्षियों ने अपनी आंखें नीचीं कर लीं. किन्तु राजर्षि महाभिष गंगा के सौंदर्य को निहारते रह गए.
गंगा भी महाभिष के पराक्रम से पूर्व परिचित थीं. दैवयोग से वह भी उन्हें अपलक निहारती रहीं. उन्हें भी ध्यान न रहा कि उनके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गए हैं.
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महाभिष के इस अभद्र व्यवहार से ब्रह्माजी को बड़ा दुख हुआ. ब्रह्माजी ने कहा- राजर्षि महाभिष तुम पराक्रमी हो, पुण्यात्मा भी हो लेकिन अभी तुम्हें थोड़ा और व्यवहार कुशल होने की जरूरत है. तुम स्वर्ग की मर्यादा के योग्य अभी नहीं बन पाए हो. आज की अशिष्टता के लिए तुम्हें पुनः मृत्युलोक जाना होगा. स्वर्ग का त्यागकर मनुष्य के रूप में जन्म लेकर मृत्युलोक के कष्ट भोगो.
ब्रह्माजी गंगा के व्यवहार पर भी थोड़े क्रोधित थे. उन्होंने मां गंगा को भी शाप दिया- तुम देवी हो, तुम्हें भी मर्यादा का ध्यान रखना था. इस अशिष्टता के कारण तुम्हें भी मृत्युलोक के प्राणियों की तरह गर्भधारण करके संतान कीउत्पत्ति करनी होगी. अपनी संतान पर विलाप भी करना होगा.
महाभिष क्षमा याचना करने लगे. इंद्र ने भी ब्रह्माजी से दया करने का अऩुरोध किया.
ब्रह्माजी ने कहा- शापमुक्त तो नहीं करूंगा पर उसकी मुक्ति के मार्ग की व्यवस्था कर देता हूं. देवी गंगा के कारण महाभिष तुम्हारा कुछ अप्रिय होगा जिससे तुम्हें बहुत पीड़ा होगी. जब तुम देवी पर क्रोध करोगे तब इस शाप से मुक्ति हो जाएगी.
महाभिष ने ब्रह्माजी के शाप को स्वीकार करते हुए उनसे विनती की कि उन्हें मृत्युलोक में पुरुवंशी राजा प्रतीप का पुत्र बना दें. ब्रह्माजी ने यह इच्छा स्वीकार कर ली.
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ब्रह्माजी से भेंट के पश्चात् मां गंगा लौटने लगीं तो रास्ते में वसुओं से उनकी भेंट हो गई. वसुओं को ब्रह्मापुत्र महर्षि वसिष्ठ ने गौचोरी का प्रयास करने के कारण पृथ्वीलोक पर जन्म लेने का शाप दे दिया था.
वसुओं द्वारा क्षमा याचना पर वशिष्ठ ने कहा था कि आठों वसु मां गंगा के गर्भ से जन्म लेंगे. गंगा सात को जन्म के साथ ही शापमुक्त करेंगी लेकिन आठवें वसु की मुक्ति आसानी से नहीं होगी.
वसुओं ने मां गंगा जी से विनती की कि वशिष्ठ के शाप से उनके तेज क्षीण हो रहा है अतः वह जल्द अपने गर्भ से जन्म देकर उनका उद्धार करें.
मां गंगा ने जन्म होते ही मुक्ति देना स्वीकार कर लिया जिसके बदले उन आठों वसुओं ने अपने-अपने अष्टमांश से मृर्त्यलोक में एक पुत्र छोड़ देने की प्रतिज्ञा की.
राजा प्रतीप संतानहीन थे. उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए गंगा के द्वार पर घोर तप आरंभ किया. वह चाहते थे कि गंगा उनके घर में जन्म लें. तप से प्रसन्न होकर गंगा प्रकट हुईं.
गंगा ने राजा को बताया कि वह संतान रूप में नहीं आ सकतीं. प्रतीप ने गंगा से कहा कि यदि संतान रूप में आप प्रकट होने में असमर्थ हैं तो मेरे भावी पुत्र की पत्नी बनने का वचन दें. इससे मेरी कामना भी पूरी हो जाएगी. गंगा ने स्वीकार कर लिया.
देवी गंगा ने प्रतीप को पुत्र प्राप्ति की विधि बताई. प्रतीप उसका पालन करते हुए घोर तप करने लगे. तप के प्रभाव से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई.
महाभिष ने ब्रह्माजी के आदेश पर प्रतीप के पुत्र शांतनु के रूप में जन्म लिया. शांतनु तेजस्वी थे. शान्तनु के युवा होने पर प्रतीप ने उन्हें राजपाट सौंप दिया और स्वयं तपस्या के लिए वन में चले गए.
शान्तनु एक बार वन में शिकार को गए और भटकते हुए प्यास से व्याकुल होकर गंगातट पर पहुंचे. नदी के तट पर उन्होंने रूप-सौन्दर्य में साक्षात् लक्ष्मी सी प्रतीत एक स्त्री को देखा तो मोहित हो गए.
वह स्वयं गंगा ही थीं. शान्तनु ने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा. प्रतीक को दिया वचन पूरा करते हुए गंगा बोली- मुझे आपसे विवाह स्वीकार है किन्तु आपको वचन देना होगा कि आप मेरे किसी भी निर्णय पर आपत्ति नहीं करेंगे. अन्यथा मैं आपको त्याग दूंगी.
शान्तनु ने गंगा को वचन देकर विवाह कर लिया और शांतनु के महल में आ गईं. गंगा के गर्भ से शान्तनु के आठ पुत्र, जो शापग्रस्त वसु थे जिन्हें गंगा ने शापमुक्त करने का वचन दिया था.
मां गंगा ने सात पुत्रों को जन्म लेते ही नदी में बहा दिया. शांतनु ने वचन दिया था कि वह गंगा के किसी निर्णय पर आपत्ति नहीं करेंगे इस कारण कुछ बोल न सके.
जब मां गंगा आठवें पुत्र को भी नदी में बहाने के लिए ले जाने लगी तो शान्तनु को गंगा पर क्रोध आया और उन्हें ऐसा करने से रोका.
यह सुनकर मां गंगा ने राजा शांतनु से कहा- महाराज आज आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है. अपने शर्त के मुताबिक मैं आज आपका त्याग करती हूं.
इस तरह महाभिष ब्रह्माजी के शाप से मुक्त हुए. गंगा अपने पुत्र के साथ अन्तर्ध्यान हो गईं. शान्तनु ने अनेक वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके व्यतीत किए.
फिर उन्होंने एक दिन गंगा से अपने पुत्र को देखने की इच्छा प्रकट की. गंगा उस बालक के साथ प्रकट हो गईं और बोलीं- यह आपका पुत्र देवव्रत है. इसे ग्रहण करें. यह पराक्रमी होने के साथ विद्वान भी होगा. अस्त्र विद्या में परशुराम के समान होगा.
शान्तनु देवव्रत के साथ अपने महल में आ गए. देवव्रत वही आठवें वसु थे जिन्हें वशिष्ठ ने शापमुक्त नहीं किया था.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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