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भगवान प्रियव्रत की इस बात से बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने उपदेश करना आरंभ किया. सुमेरू तक पहुंचने के मार्ग में मत्स्य अवतार श्रीहरि ने जो उपदेश किया उसे मत्स्य पुराण के नाम से जाना जाता है.
इस तरह पृथ्वी की हर तरह की संपदा का अंश (नमूना) सुरक्षित करा लिया. पृथ्वी इस उपाय से संतुष्ट हो गई. सुमेरू तक नौका को पहुंचाने के बाद श्रीहरि वेदों को खोजने चल पड़े.
मत्स्य रूपी भगवान विष्णु ने हयग्रीव के साथ भीषण संग्राम किया और उसका वध करके उससे वेदों को मुक्त कराया. वेद वापस ब्रह्माजी को दे दिए गए. वह कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि थी.
सत्यव्रत भगवान श्रीहरि के दर्शन और उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान से परिपूर्ण हुए थे. ब्रह्माजी ने पुनः सृष्टि आरंभ की और प्रियव्रत को उस मन्वंतर का मनु बनाया. उस मन्वंतर का नाम वैवस्वत मन्वंतर हुआ और प्रियव्रत वैवस्वत मनु हुए.
अब हम इस कथा का निहितार्थ अर्थात गूढ़ बात समझने का प्रयास करेंगे. इसे समझने के लिए लंबी चर्चा की आवश्यकता है फिर भी सरलता से और थोड़े में कहने का प्रयास कर रहा हूं.
कथा की शुरुआत में कल्प के अंत हो जाने और चारों तरफ जल भर जाने की बात कही गई है. आखिर ऐसा क्यों कहा गया है- इसे समझते हैं. हमारा शरीर का अस्तित्व वास्तव में दो प्रकार से है- एक तो आत्मा का स्वरूप है जो दिखता नहीं बस अनुभव किया जा सकता है और दूसरा है दैहिक स्वरूप यानी देह जिसे आप देखते हैं और अनुभव भी करते हैं.
बिना देह स्वरूप के कार्य हो नहीं सकते, खेती-बाड़ी से लेकर जीवन के सभी कार्य शरीर से ही तो होंगे. इसी से सृष्टि चल रही है परंतु मूल स्वरूप तो आत्मा का है क्योंकि देह नष्ट हो जाएगा पर आत्मा नहीं.
आत्मस्वरूप जब देह स्वरूप में आता है तो सृष्टि चलती है लेकिन जब देहस्वरूप वापस अपने मूलरूप यानी आत्मास्वरूप में जाता है तो सब नष्ट हो जाता है. शरीर मर जाता है- यही प्रलय का प्रतीक है.
जब हमारा मन स्थिर रहता है तो हम ज्ञान की बातें करते हैं, हमारे भीतर एक शांति आ जाती है जो सुंदर-सुंदर बातें कहती है और फिर उसमें इतने लीन हो जाते हैं कि अपनी सुध-बुध भी नहीं रहती. जैसे मीरा कृष्णभक्ति में लीन हो जाती हैं तो ध्यान ही नहीं रहा कि वस्त्र किधर और केश किधर.
आत्मा में लीन होते ही हमारे अंदर का ज्ञान मुक्त होता है- इसी बात को समझाने के लिए कहा गया है कि ब्रह्माजी जब सृष्टि निर्माण के कार्यों से विश्राम लेकर आनंद में डूबे तो उनके मुख से वेद बाहर निकल आए.
जब आपके अंदर से ज्ञान की राशि प्रकट होती है तो आपका व्यक्तित्व बड़ा हो जाता है. आपकी प्रशंसा होने लगती है, आपके पास लोगों का तांता लग जाता है. उसी समय आपके अंदर अभिमान जागता है कि हम तो इतने बड़े हो गए. हम महान हो गए. वह अभिमान ही हयग्रीव दैत्य है.
उसके जागते ही हमारी सारी महानता हमारा सारा ज्ञान उसके वश में हो जाता है और हम पतन की ओर बढ़ते हैं जिसे प्रलय कहा गया है. उस समय सत्य पर जिसकी निष्ठा बनी रहती है वैसे सत्यव्रत की संगति में आकर ही पुनः उद्धार हो सकता है.
सत्यव्रत से प्रेम करेंगे तो वासुकि जैसे नाग भी आपके मित्र हो जाएंगे, आपके वश में हो जाएंगे क्योंकि आप हरि की शरण में होंगे. हरि सत्यपथ पर चलने वाले का ही हाथ थामते हैं. इस प्रकार आप पुनः नई सृष्टि बनाने में सफल होंगे. यही जीवन का क्रम है. उत्थान से पतन और फिर पतन से पहले से भी ज्यादा सुंदर उत्थान का मार्ग.
हमारे पुराणों में जो बातें कही गई हैं वह सब सांकेतिक हैं. उनका अभिप्राय, उनका अर्थ हमें समझना होगा. सांकेतिक रूप में इसलिए कही गईं क्योंकि ज्ञान हमेशा योग्य के पास ही होना चाहिए अन्यथा वह इसका दुरुपयोग करेगा जैसे रावण ने किया.
सांकेतिक ज्ञान को आप आज की भाषा में कोड वाले मैसेज समझिए. कोड को खोलने के लिए आपको परिश्रम करना होगा. परिश्रम करते-करते आपका मन पावन हो जाएगा और फिर आपमें समझ आएगी कि इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए.
पुराणों और उनकी कथाओं का उपहास करने वाले इस परिश्रम से बचने की फिराक में हैं और सबसे सरल कार्य है किसी का उपहास कर देना. यही आज्ञानता है. तो विधर्मियों के समक्ष आपको दबने की जरूरत नहीं. उन्हें तर्क से करारा जवाब देने की जरूरत है. सनातन ज्ञान का मुकाबला कोई नहीं कर सकता. गर्व करें इस पर.
प्रभु शरणम् के माध्यम से मैं यह प्रयास करना चाहता हूं कि उन कोडेड मैसेज को समझा जाए, परखा जाए और लाभ लिया जाए. यह भी मंत्र जप, भजन, हवन, कीर्तन से कम पुण्यकारी कार्य नहीं है.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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