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सही तौर पर तो प्रजा पर भी क्यों वे अपने मन के मालिक हैं. मेरा अधिकार केवल अपने शरीर तक ही है. जनक इस तरह बड़ी देर तक सोचते विचारते रहे. अंत में उन्हें लगा कि कई मौकों पर शरीर भी उनके कहे अनुसार ही चले.

उससे अपने सोचे के अनुसार अपने मन की करवा सकें, कहां संभव है. जाहिर है मेरा तो अपने शरीर पर भी अधिकार नहीं है. आखिरकार राजा जनक उस दंड़ पाये ब्राह्मण से बोले, ‘मेरा कहीं कोई अधिकार नहीं है,आप जहां चाहें रहें,जो चाहे खाएं.

ब्राह्मण ने महाराज जनक के फैसले पर अचरज करते हुए पूछा- ऐसा कैसे? इतने बड़े राज्य को आप ही तो चलाते हैं. राज्य की सारी व्यवस्था और लोग आपके आधीन है. आप इस जिम्मेदारी से हट कर कैसे कह सकते हैं कि मैं अधिकारी नहीं हूं.

अपनी प्रजा और राज्य के लिये क्या आपका कोई लगाव नहीं, जो आप सबसे मुंह मोड़ कर ऐसा कह रहे हैं? कभी तो आप समूची धरती का अधिकारी होने का दावा करते हैं.

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