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मन्दराचल पर्वत पर देवताओं ने यज्ञ का आयोजन किया. समस्या खड़ी हुई कि देवताओं में सर्वश्रेष्ठ कौन है जिसे यज्ञ के सारे हविष (यज्ञकुंड में समर्पित पदार्थ जिसे देवों को शक्ति मिलती है) का अधिकारी बनाया जाए. बाद में वह देव उस हविष में से अन्य देवताओं को अपनी इच्छानुसार अंश दे सकते थे.

देवराज इंद्र का पद स्थायी नहीं होता. उसके लिए चयन होता था. इस बात को ध्यान में रखकर सर्वश्रेष्ठ भगवान का निर्धारण और जरूरी था. ताकि वह आगे इंद्र की नियुक्ति कर सके.

सभी देवता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि त्रिदेवों(ब्रह्मा, विष्णु-महेश) में से ही किसी को सर्वश्रेष्ठ मानकर सारी हविष समर्पित कर देनी चाहिए. इस यज्ञ में सर्वप्रथम किसका आह्वान किया जाए इसके निर्णय की भी समस्या आ खड़ी हुई.

समस्त देवताओं, ऋषियों, गंधर्वों, नागों, यक्षों आदि की सभा हुई और यह तय हुआ कि ब्रह्मा के पुत्र महर्षि भृगु इसका निर्णय करें वह त्रिदेवों में से जिसे कहेंगे उन्हें उस यज्ञ का प्रधान अधिपति मान लिया जाएगा.

अत्यधिक प्रशंसा से अच्छे-अच्छों की बुद्धि बिगड़ जाती है. देवों द्वारा मिले इस सम्मान से भृगु अभिमानी हो गए. वह तो किसी को भी कह देते उन्हें मान लिया जाता. त्रिदेवों में कोई आपसी भेद तो है नहीं. वे एक दूसके की प्रथम पूजा करते हैं.

परंतु भृगु ने तय किया कि वह त्रिदेवों की परीक्षा लेंगे उसके बाद ही निर्णय करेंगे. जब देवताओ ने यह बात सुनी तो उन्हें आभास हो गया कि कुछ होने वाला है. इसी कारण भृगु की बुद्धि बिगड़ी है. उन्होंने सबसे पहले शिवजी की परीक्षा लेने की सोची

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4 COMMENTS

    • आपके शुभ वचनों के लिए हृदय से कोटि-कोटि आभार.
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  1. प्रियवर बंधु
    आपकी कथा विचार करने योग्य है। परंतु आपने गलत ज्ञान दिया है।
    विष्णु जी को ही बार बार अवतार इसलिए लेना पड़ता है क्योंकि वो सृष्टि के पालनहार हैं।
    और जब मनुष्य जाती पर कोई संकट आता है तब पालनहार होने की वजह से उन्हें ही अवतार लेना पड़ता है।

    अच्छा चलो आपकी बात मन भी लें तो इसका कोई सबूत है मतलब ये कथा किस पुराण या वेद में लिखा है। या ऐसे ही कोई कहानी बना दी।

    कृपया उत्तर अवश्य दें।

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