महादेव के मना करने के बाद भी सतीजी पिता दक्ष के यज्ञ में शामिल होने गई हैं. दक्ष को महादेव से बैर हो गया है. इसलिए वह अपनी पुत्री तक का अपमान कर रहे हैं. उन्होंने सतीजी का कुशल-मंगल भी नहीं पूछा. सिर्फ माता ने पुत्री से स्नेह किया.

सती यज्ञशाला में पहुंचीं. वहां सभी देवताओं को उपस्थित देखा परंतु महादेव के लिए यज्ञभाग नहीं था. उन्हें पिता द्वारा पति का ऐसा अपमान असह्य लगा.

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

सतीजी को शिवजी का अपमान सहा नहीं गया. उनका हृदय क्रोध से भर गया. तब सतीजी पूरी सभा को हठपूर्वक डांटते हुए क्रोधभरे वचन में बोलीं-

पति द्वारा त्याग दिए जाने से दुखी सतीजी पिता के पास मानसिक शांति के लिए आई थीं. किंतु यहां तो एक के बाद एक मानसिक वेदनाएं ही मिल रही है. पिता द्वारा हो रहे महादेव के अपमान को देवता और मुनि निर्लज्ज हो देख रहे हैं.
चौपाईः
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो. जिन लोगों ने यहां शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी इस कार्य के लिए बहुत पछताएंगे.

संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा की जा रही हो वहां यदि अपना वश चले तो उस निंदा करने वाले की जीभ काट लेनी चाहिए या फिर कान बंदकर वहाँ से भाग जाना चाहिए.

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥3॥

त्रिपुर दैत्य का वध करने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं. वह जगत्पिता हैं और सबका हित करने वाले हैं. मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है. मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है.

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

इसलिए चन्द्रमा को अपने सुंदर ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर का तत्काल त्याग करती हूं. ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला. सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया.

दोहाः
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥64॥

सतीजी के शरीर त्यागने की सूचना पाकर शिवजी के गण यज्ञ में विध्वंस मचाने लगे. शिवगणों द्वारा यज्ञ का विध्वंस होता देखकर भृगुजी ने यज्ञ की रक्षा की.

चौपाई :
समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥

शिवजी को भी सतीजी के देहत्याग और गणों द्वारा यज्ञ में निध्वंश और भृगु द्वारा गणों के अहित की सूचना मिली. क्रोधित महादेव ने वीरभद्र को भेजा. वीरभद्र ने वहां जाकर यज्ञ का विध्वंस कर डाला और सभी देवताओं को यथोचित दंड दिया.

भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥2॥

दक्ष की वही गति हुई, जो संसार में शिवद्रोहियों की हुआ करती है और जिसे सारे संसार ने देखा. इस प्रकरण को विस्तार से सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया.

पत्नी के शोक से विकल महादेवजी ने क्या किया. यह प्रसंग बड़ा दारूण है. समस्त संसार के दुखों को अपने हृदय में समेट लेने वाले महादेव ही दुखी हैं. कल इस पर चर्चा करेंगे.

संकलनः राजन प्रकाश

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