कामदेव को भस्म करने के बाद विलाप करती रति को शिवजी ने वरदान दिया है कि द्वापर में श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में काम का पुनर्जन्म होगा तब जाकर काम और रति का पुनर्मिलन होगा.
शिवजी का क्रोध शांत हुआ तो ब्रह्माजी के साथ देवगण उनके पास आए हैं. हाथ जोड़े खड़े विनती कर रहे हैं. देवताओं के कष्ट के कारण बने तारकासुर से मुक्ति के लिए महादेव का विवाह आवश्यक है क्योंकि उसे वरदान है कि शिव के वीर्य से उत्पन्न संतान ही उसका वध करे.
ब्रह्माजी सबकी अगुवाई कर रहे हैं. शिवजी की आज्ञा मिलने पर ब्रह्माजी निवेदन कर रहे हैं. हे शिवशंकर! सभी देवताओं के मन में एक उत्कंठा, एक अभिलाषा है. हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं.
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
चौपाई :
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥
हे कामदेव के मद को चूर करने वाले भोलेनाथ! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें. हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया.
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं. पार्वतीजी ने अपार तप किया है, अब उन्हें स्वीकार कीजिए.
देवता हर विधि से शिवजी को पार्वतीजी से विवाह के लिए मना रहे हैं. भोलेनाथ ने तो पहले ही श्रीरामजी को वचन दिया है कि वह पार्वतीजी से विवाह करेंगे. उस वचन को पूर्ण करने का अवसर आ गया है.
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- ऐसा ही होगा. विवाह की सहमति पर देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके ‘जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो’ ऐसा कहने लगे.
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया. वे पहले वहां गए जहां पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे विनोदयुक्त वचन बोले-
दोहा :
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥
सप्तर्षि पार्वतीजी से विनोद करते हुए कह रहे हैं- नारदजी के उपदेश से आपने उस समय हमारी बात नहीं सुनी. अब तो शिवजी से विवाह का आपका प्रण झूठा हो गया क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला.
भगवती पार्वती अंतर्यामी हैं. वह ऋषियों का भाव समझ रही हैं. उन्हें पता है कि सभी ऋषि-मुनिगण महादेव की सेवा में रहते हैं. महादेव अपने प्रियजनों के साथ विनोदपूर्ण भाव में रहते हैं इसी कारण ये ऋषिगण भी उनके साथ थोड़ी हंसी कर रहे हैं.
महादेव द्वारा विवाह की सहमति की बात ने गंभीर स्वभाव सप्तर्षियों को चुहल वाला बना दिया है. पार्वतीजी से यह बात छिपी तो है नहीं. वह भी इनके आनंद और उत्साह को कम नहीं करना चाहतीं. विवाह की प्रसन्नता उनके मन में भी है.
प्रसन्नचित्त सप्तर्षि और हर्षित भगवती के बीच संवाद होता है. यह प्रसंग कल….
संकलनः राजन प्रकाश
Jai Gauri Shankar