पिछली कथा “नारायण की कृपा, दुर्वासा का आशीर्वाद….” से आगे…
नारायण मंत्र के जाप और दुर्वासाजी के आशीर्वाद से व्याध महान सत्यतपा ऋषि बन गया. दुर्वासा ने सत्यतपा से कहा कि तुमने कठोर तपस्या की है. पूरे मनोयोग से तपस्या करके भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त की है.
दुर्वासा ने कहा कि संभव है कि वे तुम्हारी परीक्षा भी लें. तुम इसके लिये अपने पूरी बुद्धि विवेक से तैयार रहना. अपनी इस घोर तपस्या को अपनी परीक्षा की असफलता से व्यर्थ मत जाने देना.
प्रभु श्रीविष्णु यदि प्रसन्न हो जायें तो यह मोक्ष मिलने के ही समान है. दुर्वासा ने सत्यतपा को श्रीविष्णु की प्रसन्नता से क्या प्राप्त हो सकता है, इसकी महिमा बताने के लिए एक कथा सुनायी.
प्रतिष्ठानपुर या पाटन, का राजा था वीरधन्वा. जस नाम तस गुण. इतना वीर कि दुश्मन उससे दस कोस दूर भागते. सो राजा को अपना राज्य बचाने की खास चिंता तो थी नहीं इसलिये प्रायः शिकार खेलने निकल जाता था.
एक बार राजा वीरधन्वा शिकार खेलने गया. जंगल में थोड़ा भीतर घुसा तो एक ही जगह ढेरों मृग सुस्ताते हुए मिले. राजा की बांछें खिल गई सहज और सुंदर शिकार. राजा ने ऐसी जगह चुनी जहां से पेड़ के नीचे बैठे सभी हिरणों पर एक साथ निशाना लगाये जा सके.
वीरधन्वा ने अपने धनुष पर एक साथ कई तीर चलाने की व्यवस्था की और एक बार में ही सारे मृग मार ड़ाले. अपनी सफलता से राजा वीरधन्वा खुश तो हुआ पर बिना अधिक उछलकूद, चपलता दिखाए उन मृगों को शिकार हो जाते थोड़ा अचरज हुआ.
राजा अचरज और प्रसन्नता के साथ मारे गये मृगों के पास पहुंचा. उन्हें उलट पुलट देखा तो सन्न रह गये. ये तो मृगों की खाल लपेटे ब्राह्मण कुमार थे. उससे अनजाने में ही अनर्थ हो गया था. राजा ने पाप की मुक्ति का मार्ग पूछने देवरात मुनि की शरण में जाने का निश्चय किया.
सत्यतपा ने तब दुर्वासा मुनि से पूछा- महर्षि बीच में टोकने का अपराध क्षमा करें पर वे ब्राह्मण कुमार मृगों की खाल ओढे क्यों विचर रहे थे. इस तरह का खेल करने की क्या आवश्यकता है. यह मेरी जिज्ञासा है. उचित हो तो मेरे अचरज को शांत कीजिये.
दुर्वासा बोले- सत्यतपा, किसी समय की बात है. संवर्त ऋषि के पाँच बेटे आश्रम से निकल घने जंगलों की ओर गये. जंगल के भीतर उन्होंने देखा की एक घनी झाड़ी के भीतर बहुत से मृग शावक सोये हुये हैं.
किशोर ऋषि कुमार अपनी उत्सुकता रोक न सके. नजदीक जा कर देखा, पता चला कि ये अभी कुछ ही समय पहले पैदा हुए बच्चे हैं. हिरणी उन्हें कहीं दिखाई नहीं दी. सबने एक-एक हिरण का बच्चा पकड़ा और गुफा में ले गये.
अपनी मां के अभाव में तुरंत ही पैदा हुये बच्चे कितनी देर जीते, जल्द ही सब मर गये. संवर्त ऋषि के पुत्रों को बहुत बुरा लगा, अफसोस हुआ. वे भारी मन से आश्रम लौट आये और पिता से सारी बात कह सुनायी.
वे बोले भूल से ही सही पर यह जीवहत्या हम से हुई है. हमें पछतावा है. इसका कुछ प्रायश्चित बताएं. इस पाप से उबरने के लिये क्या करें. संवर्तक ऋषि ने कहा, हमारे पिता बड़े ही हिंसा प्रेमी थे.
उनके इस अवगुण का असर मुझे भी हुआ, मैं भी अपनी युवावस्था तक बहुत हिंसक था. इसलिये थोड़ी ही सही हिंसा तुम लोगों में भी है. अब तुम लोग ऐसा करो कि मृगों की खाल को लपेट कर पूरे पांच साल तक वन में विचरो.
इस तरह हिरण की खाल में रह कर जीवन बिताने से तुम सबकी बुद्धि निर्मल और चित्त शांत हो जायेगा और हिंसा का स्वभाव समाप्त हो जायेगा. पाँच साल तक ऐसा पूरे संयम से बरत लिया तो इस पाप से शुद्धि और मुक्ति हो जायेगी. यही इस पाप मुक्ति का उपाय है.
ऋषि के बेटों ने वैसा ही किया. आश्रम में वेद और विद्या का अभ्यास करने वाले बहुत से दूसरे लड़के भी आते थे. उन्होंने भी इस तरह का स्वांग रचा. उन्हें ऐसा करते करते अब पांच साल पूरे होने ही वाले थे.
चूंकि वे सब वेदपाठी ब्राह्मण थे और उनमें हिरणों जैसी चंचलता तो थी नहीं बल्कि गंभीरता और एकाग्रता थी. वे सब हिरण की खाल ओढे ध्यान लगाये शांत बैठे थे इसलिये बिना कोई हलचल किये एक ही बार में मारे गये.
दुर्वासा ने आगे कहा, तो सत्यतपा, राजा वीरधंवा मुनि देवरात से इस पाप से उबरने का उपाय पूछने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि यह पाप तो जघन्य है. यह सुनने के बाद तो वीर राजा वीरधन्वा फूट-फूट कर रो पड़े.
देवरात ने कहा- हे राजा तुम्हें अब भगवान विष्णु की प्रसन्नता ही बचा सकती है, राजा का रूदन और तेज हो गया तो अब देवरात मुनि को कहना पड़ा. मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता की विधि बता तुम्हें बचा लूंगा.
देवरात मुनि ने राजा को बताया कि किस प्रकार के मंत्रों से प्रभु विष्णु का वाराह द्वादशी व्रत किया जाये. राजा वीरधन्वा ने विधि-विधान से उस व्रत को किया और भगवान विष्णु वीरधन्वा पर प्रसन्न हुए.
भगवान विष्णु के इस व्रत के अनुष्ठान को पूरा करने और भगवान विष्णु के प्रसन्न होने से वीरधंवा ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुये और कई बरस तमाम तरह के भोग सुखपूर्वक भोगने के बाद स्वर्ग से आये विमान पर चढ कर स्वर्ग चले गये.
स्वर्ग पहुंचने पर उनका स्वागत करने इंद्र आये पर श्रीविष्णु के पार्षदों ने उन्हें यह कहकर रोक दिया कि आपका तप उनसे कम है आप उधर न देखें. आखिरकार उन्हें सत्यलोक ले जाया गया जहां पहुंच कर वह जन्म मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो गए.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश