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ब्रह्मदेव के नयन अमृत और विष्णुजी के चरणअमृत दोनों के दिव्य संयोग से वे आंसू तत्काल वृक्ष में बदल गए. वह वृक्ष भी अमृतमय हो गया. नारायण ने उस उत्तम वृक्ष को धात्री (जन्म के बाद पालन करने वाली दूसरी मां) नाम दिया.
श्रीहरि ने ब्रह्माजी को वरदान दिया- हे ब्रह्मदेव सृष्टि के सृजन के कार्य में यह धात्री वृक्ष आप की बड़ी सहायता करेगा. इसके फल का नियमित सेवन करने वाले जीव वात, पित्त एवं कफ जन्य त्रिदोषों से मुक्त होकर स्वस्थ रहेंगे.
कार्तिक नवमी को जो भी जीव धात्री वृक्ष का पूजन करेगा, उसे विष्णु लोक प्राप्त होगा. धात्री की महिमा अक्षय रखने के लिए श्रीविष्णुदेव अक्षय नवमी से तीन दिनों तक इस वृक्ष में निवास करते हैं और अमृत वर्षा करते हैं.
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