परशुराम ने सहस्रार्जुन के सभी पुत्रों का ही नहीं उसके बंधु बांधवों, समर्थक राजाओं तथा सेनाओं का नाश कर दिया. अपने कालाग्नि जैसे दिव्य अस्त्रों से महिष्मती नगरी को पूरी तरह उजाड़ने के बाद परशुराम ने यथासंभव हजारों क्षत्रियों की हत्या की.

पिता की हत्या का बदला लेने के बाद महेंद्र पर्वत पर पहुंचे परशुराम ने घोर तपस्या आरंभ कर दी. अकृतव्रण हमेशा की तरह उनके साथ था. परशुराम को तप करते दो वर्ष बीत चुके थे.

परशुराम ने अपने भरसक क्षत्रियों का विनाश तो किया था पर फिर भी कुछ क्षत्रिय जीवित बचे हुये थे. परशुराम के रहने पर जिस तरफ भी परशुराम के आने का समाचार मिलता क्षत्रिय भाग खड़े होते. भाग कर छिपे क्षत्रियों के कई गोत्रों ने उनकी संख्या बढा दी थी.

कई क्षेत्रों में ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थवश क्षत्रियों की संख्या बढाने में योगदान दिया. उन्होंने अन्य वर्गों को इस जाति की दीक्षा दी. कुल मिलाकर एक बार फिर क्षत्रियों की संख्या बढने लगी.

अकृतव्रण को इसकी सूचना मिली और परशुराम को भी इस बात का पता चला तो वे महेंद्र पर्वत से चल दिये. उनके आने के समाचार से क्षत्रिय राजाओं में हाहाकार मच गया.

परशुराम की आने की सुन कुछ क्षत्रिय मुकाबले को आ डटे. दंतक्रूर उनमें से एक था, उसकी बुरी गत बनी. गुणावती के उत्तर और खंड्वारण्य के दक्षिण में बड़ा भीषण संघर्ष हुआ. दस हजार से ज्यादा क्षत्रियों का वध कर दिया.

अंग, बंग, कलिंग, विदेह, मालव, तामलिप्त, कश्मीर, दरंद , कुंति क्षुद्रक, वीतिहोत्र, रक्षोवाह, तिर्गत, शिबि और मार्तिकावत जैसे देशों के राजाओं की हत्या बड़ी ही निर्दयतापूर्वक हुई.

चौदह कोटि क्षत्रिय जो ब्राह्मणों से द्वेष रखते थे उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया गया और बारह हजार ऐसे क्षत्रियों के सिर काट लिए गये जो संघर्ष में बेहोश हो गये थे. कुल चौंसठ कोटि राजा मारे गये.

हजारों क्षत्रियों को परशुराम ने फरसे से काट डाला तो कइयों को पेड़ से लटका कर मार डाला तो बहुतों का प्राण मिर्चों की धूनी दे कर ले लिया. इतना सब करने के बाद परशुराम हजारों राजाओं को पकड़कर कुरुक्षेत्र ले आये.

कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक क्षेत्र में उन्होंने पाँच तालाब तैयार करवाये और फिर इन हजारों क्षत्रियों को काट कर उनके खून से पाँच सरोवर भर दिये. परशुराम ने सरोवर किनारे ब्राह्मणों को बुलवाकर पूरे विधि विधान से अपने पितरों के श्राद्ध की व्यवस्था की.

परशुराम का क्रोध अभी भी शांत नहीं हुआ था. परशुराम ने रक्त सरोवर में स्नान किया और रक्त से अंजुलि भर भर कर पितरों का तर्पण किया. उसी समय ऋचीक आदि पितृगण वहां प्रकट हो कर बोले, तुम्हारे पराक्रम से हम बहुत ही प्रसन्न हैं.

तुम्हें जिस वर की इच्छा हो हमसे माँग लो. परशुराम ने कहा- आप सब हमारे पितर मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रियवंश का विध्वंस किया है, इस पाप से मैं मुक्त हो जाऊँ और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायें.

ऐसा ही होगा यह कहकर पितरों ने परशुराम को वरदान दे दिया. साथ ही पितरों ने यह भी कह कि यह हिंसा कहीं से उचित नहीं, आवेश में किये गये अपने इस कुकर्म का प्रायश्चित्त करो. अब बचे खुचे क्षत्रिय वंश को क्षमा कर दो’.

इसके पश्चात परशुराम शान्त हो गये. उन्होंने सहसाह नामक अपने सारथी और अगस्त्य तथा गणेशजी द्वारा भेजे रथ तथा अस्त्रों को उसके साथ ही वापस जाने तथा भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर फिर आने को कह विदा कर दिया.

परशुराम ने तय किया कि वे फिर से ब्राह्मणों जैसे उचित कर्म करेंगे और अकृतव्रण को लेकर सिद्ध वन के आश्रमों की ओर चले गये. सब तीर्थों का स्नान और दर्शन किया तथा पूरी धरती की तीन बार चक्कर लगाने के बाद महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गये.

रक्त से भरे सरोवरों के पास जो समन्तपंचक क्षेत्र था वह कालांतर में प्रसिद्ध तीर्थ बन गया. ऐसा क्या हुआ कि एक बार फिर लौटे परशुराम… यह कथा आगे.

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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