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युधिष्ठिर के यज्ञ में शामिल हो भगवान श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये थे. उस समय द्वारका की शोभा इतनी न्यारी थी कि उसके सामने इंद्र का स्वर्ग भी फीका था. इंद्र को इससे बड़ी ईर्ष्या होती थी.

उस समय इस नगरी को देखने अनेक देशों के राजा और कुछ देवतागण द्वारका पधारे थे. सभागार में सुधर्मा के साथ भगवान श्रीकृष्ण एक बड़े से आसन पर इन सभी राजाओं के बीच घिरे बैठे थे. अचानक नारदजी प्रकट हुए.

नारदजी ने भगवान को अभिवादन की औपचारिकता पूरी की फिर बोले- देवताओं के बीच आप ही परम आश्चर्य और धन्य हैं.

भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराए और सिर हिलाकर हामी भरते हुए कहा- हां! मैं दक्षिणाओं के साथ आश्चर्य और धन्य हूं.

नारद बोले- मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया. मैं तो चला. नारद जाने को हुए. वहां उपस्थित राजाओं और देवताओं को कुछ समझ में न आया कि यह पहेली क्या है. वे बोले भगवन यदि गोपनीय न हो तो हमें भी बताइये कि यह क्या है?

भगवन बोले- मेरे उत्तर को नारद जी समझ गये हैं. उनके प्रश्न को आप नहीं समझ सके. अपना प्रश्न तो आपको नारदजी ही बता सकते हैं.

धैर्य रखें नारदजी स्वयं ही आप सभी को पूरी कथा सुनायेंगे, रहस्य बताएंगे.

भगवन का आदेश पाकर नारदजी ने प्रसंग बताना शुरू किया बोले.

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