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।। दूसरे अध्याय का माहात्म्य ।।
श्री भगवान कहते हैं- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य का उपाख्यान मैंने सुना दिया। अब अन्य अध्यायों के माहात्मय श्रवण करो ।दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे ।वे अतिथियों के पूजक स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले और तपस्वियों के सदा ही प्रिय थे ।
उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मण को कभी सदा रहने वाली शान्ति न मिली। वे परम कल्याणमय तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्पवाले तपस्वियों की सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए ।वे पूर्ण अनुभवी, शान्तचित्त थे।
निरन्तर परमात्मा के चिन्तन में संलग्न हो वे सदा आनन्द विभोर रहते थे। देवशर्मा ने उन नित्य सन्तुष्ट तपस्वी को शुद्धभाव से प्रणाम किया और पूछाः ‘महात्मन ! मुझे शान्तिमयी स्थिती कैसे प्राप्त होगी?’ तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहाः ‘वही तुम्हें उपदेश देगा ।’
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