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श्रीहरि स्वयं उस रथ में बैल बनकर जुते थे जिस पर सवार होकर महादेव ने त्रिपुर संहार किया था और काशी में मनी देव दीपावली. देव-दीपावली को इसलिए वृषोत्सर्ग की बड़ी महिमा कही गई है.
कहीं काशी में इसीलिए तो सड़कों पर मुक्त घूमते सांढों की संख्या ज्यादा नहीं हैं? खैर, गरूड़ ने श्रीकृष्ण से पूछी वृषोत्सर्ग की महिमा तो श्रीकृष्ण ने उन्हें एक लंबी कथा सुनाई थी.
पक्षीराज गरुड़ अपनी एक शंका लेकर भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे. गरुड़ ने उनसे पूछा कि हे भगवन यदि कोई निरंतर दान पुण्य करता रहे, आपको भजता रहे तीर्थ-यज्ञ आदि करे तो भी कई बार उसे सद्गति की प्राप्ति नहीं होती ऐसा क्यों?
श्रीकृष्ण बोले- गरूड़ सभी धर्म कर्मों के अतिरिक्त वृषोत्सर्ग करना भी आवश्यक है. गरूड़ ने पूछा- प्रभु यह वृषोत्सर्ग क्या है, इसकी विधि क्या है? इसकी महिमा जानने की इच्छा है, कृपया बताएं.
गरुड की शंका के समाधान के लिए भगवान ने कहा- हे गरूड़! ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि वशिष्ठ ने राजा वीरवाहन से जो कथा कही थी, वह सुनो. इससे तुम्हारी शंका का समाधान हो जायेगा.
प्राचीन काल में विराधनगर एक बहुत सुंदर नगर हुआ करता था. यहां का राजा था वीरवाहन. वीरवाहन की दयालुता, सत्यवादिता और दान-धर्म का डंका बजता था.
एक बार वीरवाहन शिकार के लिए गया. उसे वहां महर्षि वशिष्ठ का आश्रम दिखा. राजा को काफी समय से एक जिज्ञासा थी. उसे जिज्ञासा शांत करने का उचित अवसर लगा और आश्रम में चला गया. वशिष्ठ ने राजा के आने का प्रयोजन पूछा.
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