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एक सेठ बड़ा धनवान था. धन के साथ अभिमान तो आता ही है. सेठ को भी अपने ऐश्वर्य और धन सम्पत्ति का बड़ा अभिमान था. अपने को बड़ा दानी धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए घर पर नित्य एक साधु को भोजन कराता था.
एक दिन एक ज्ञानी महात्मा उसके द्वार तक पधारे. सेठ ने उन्हें भी भोजन का निमंत्रण दिया. जिस महात्मा ने सारे सुखों का त्यागकर संन्यास लिया हो उसे भोजन से कोई क्या रिझा लेगा!
विधान है कि अपने घर भोजन को पधारे संत-साधु की सेवा करनी चाहिए. वह भोजन के लिए आता ही नहीं, प्रेम के लिए आते हैं. धन के मान में डूबे सेठ को इसका ध्यान कहाँ! उसने सत्कार के स्थान पर शेघी बघारनी शुरू की.
सेठ अपनी कोठी की तरफ इशारा कर बोला- देखिए महाराज वहां से लेकर इधर तक यह अपनी कोठी है, ऐसी कोठी शायद किसी के पास हो. पीछे भी इतना ही बड़ा बगीचा है.
अमुक-अमुक शहरों में मिलें हैं मेरी. मैंनी इतनी धर्मशालाएं बनवाई हैं, इतनी बावड़ियां चलाई हैं. दो लड़के विलायत पढ़ने जा रहे हैं. आप जैसे साधु संन्यासियों का पेट पालने के लिए यह रोजाना का सदाव्रत लगा रखा है. न जाने कितने लोग भोजन करके जाते हैं.
सेठ अपनी बातें कहता ही जा रहा था. महात्मा जी समझ गए कि यह इंसान परमार्थ के कुछ कार्य तो कर रहा है किंतु इसकी मति अच्छी नहीं है इससे सारी सेवा तो निष्फल हो जाएगी. इसका कुछ उद्धार करना चाहिए. इसका अभिमान दूर करके ही उद्धार होगा.
बात को बीच में रोककर महात्माजी ने सेठ से कहा- आपके यहां दुनिया का नक्शा है क्या? सेठ ने इस पर भी गर्व दिखाते हुए कहा- महाराज इतना बड़ा नक्शा है कि शायद इस शहर में किसी के पास हो.
नक्शा मंगाया गया. महात्माजी ने सेठ से कहा- इस नक्शे में आपका धर, बागीचा, फैक्ट्री और अन्य संपत्ति कहां हैं, वहां उंगली रख दें. मैं इस नक्शे में आपका वैभव देखकर प्रसन्न होना चाहता हूं.
सेठ अकचका गया. उसे महात्माजी पर झुंझलाहट भी हो रही थी कि यह प्रश्न है. पूरे विश्व के नक्शे पर उसका धर कैसे दिख सकता है! सेठ बोला- महाराज दुनिया के नक्शे में इतनी छोटी चीजें कहां से दिखेंगी?
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