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राजा मांधाता के कुल में सत्यव्रत हुए. उसका ही नाम त्रिशंकु पड़ा था. सत्यव्रत स्वेच्छाचारी, कामी और दुष्ट प्रवृति के थे. सत्यव्रत के पिता महाराज अरूण ने उसे एकबार महल से निकाल भी दिया था.

सत्यव्रत ने वशिष्ठ मुनि का अपमान कर दिया. कुपित मुनि ने उसे पैशाचिक रूप में रहने का शाप दे दिया. वशिष्ठ के शाप से शापित होने के बाद त्रिशंकु तप करने लगे.

उन्होंने परम कल्याणकारी भगवती जगदंबा का ध्यान करते हुए नवाक्षर भगवती मंत्र का जप करने लगा. शाप के कारण उसके शरीर में पिशाच के लक्षण आ गए थे.

परंतु भगवती की कृपा से उसकी बुद्धि पैशाचिकता के प्रभाव से बची रही. वह भगवती आराधना करता रहा. नवाक्षर मंत्र का जप समाप्त करके हवन कराने के लिए सत्यव्रत कुछ ब्राह्मणों के पास गया.

उसने ब्राह्मणों से कहा- आप वेदपाठी ब्राह्मण हैं. मैंने नवाक्षर मंत्र के जप का संकल्प पूर्ण किया है. आप मेरे ऋत्विक बनकर उसका अनुष्ठान कराएं.

ब्राह्मणों ने कहा- वशिष्ठ के शाप के कारण आप पैशाचिक योनि में प्रवेश कर चुके हैं. जगदंबा की कृपा से आपमें सुबुद्धि तो बची है लेकिन पिशाच होने के कारण आपका वेदों पर अधिकार न रहा.
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