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चौथे दिन जब कांतिमती मुनि दर्शन के लिये पहुंची तो वे अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर बोले, हे जगन्नाथ आप धन्य हैं. आपकी लीला महान है.
इसी तरह पांचवें दिन वे बोले भद्राश्व तुम्हें बहुत बहुत धन्यवाद, हे अगस्त्य तू धन्य हुआ. इसी तरह छठे दिन भी उन्होंने कांतिमती को देख कर प्रशंसात्मक टिप्पणियां की.
सातवें दिन तो गज़ब ही हो गया. वे बोले कि राजा ही नहीं उसकी रानी, सेवक सभी मूर्ख हैं जो मेरी बात नहीं समझते. इतना कहने के बाद वे उठे और सबके बीच, राजा भद्राश्व के सामने ही भाव विभोर हो नाचने लगे.
सात दिनों तक रानी के जाने पर उसकी प्रशंसा और अब यह सभी उपस्थित लोगों के सामने ही धीर गंभीर रहने वाले मुनि का नृत्य. कुछ देर तो राजा अचरज में रहा फिर उसने विनम्रता से हाथ जोड़कर अगस्त्य मुनि से इसका कारण पूछा.
राजा के आश्चर्य और प्रश्न के उत्तर में मुनि ने कहा- राजन आप पूर्वजन्म में हरिदत्त नामक एक धनवान पर धर्म कर्म में विश्वास रखने वाले वैश्य के दास थे. उसकी सेवा सुरक्षा आपका काम था. यह कांतिमती तब भी आपकी पत्नी थी.
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आपके शुभ वचनों के लिए हृदय से कोटि-कोटि आभार.
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