बात सतयुग की है. बंग देश में बभ्रुवाहन नाम का राजा था. कहते हैं उसके राज्य में कोई भी पापी नहीं रहता था. राजा धर्मालु था और बहुत वीर था. एक बार राजा सौ घुडसवार सैनिकों के साथ शिकार खेलने गया.
कुछ दूर जाने पर राजा बह्रुवाहन को नन्दनवन के समान एक घना वन नजर आया. यह वन बिल्ब, मंदार, खदिर, कैथ तथा बांस के वृक्षों से भरा हुआ था. वह जल रहित वन भयंकर और विशाल क्षेत्र में फ़ैला हुआ था.
राजा वन में शिकार करने लगा. उसने एक हिरन की कमर में तीर मारा. घायल मृग बडी तेजी से दौडा. राजा ने मृग का पीछा किया. घायल हिरण के पीछे पीछे भागता राजा इस वन से दूसरे घनघोर वन में पहुंच गया.
राजा बहुत थक गया था. वह प्यास के कारण किसी सरोवर को खोजने लगा. पास ही से हंस और सारस पक्षी की आवाज सुनकर वह पूरचक्र नामक सरोवर पर पहुंचा. उस स्वच्छ और शांत सरोवर से राजा ने जल पिया और स्नान किया.
थका राजा बभ्रुवाहन एक छायादार वृक्ष के नीचे सो गया. राजा के सोते ही वहां अनेक प्रेतों के साथ घूमते हुये प्रेतवाहन नाम का प्रेत आया. उसके शरीर में मात्र हड्डियां, चमढा और नसें ही नजर आती थी.
वह भोजन की तलाश में घूम रहा था. कुछ आहट सुन अचानक राजा की नींद खुल गयी. उस अनोखे जीव को देखकर राजा ने तत्काल धनुष उठा लिया. प्रेत अपने स्थान पर खडा रह गया.
अपने संपूर्ण जीवन में राजा ने ऐसा विचित्र और विकृत शरीर वाला जीव नहीं देख था. राजा बभ्रुवाहन ने चकित हो कर उससे पूछा, तुम कौन हो? कहां से आये हो? ये तुम्हारा शरीर इस तरह का विकृत कैसे हुआ है?
राजा ने कहा- ये वन अत्यन्त भयानक है. विभिन्न प्रकार की डरवनी अवाजें आती हैं. अक्सर बिजली की आग दिखाई देती है. यहां बहुत से जीवों के शब्द तो सुनाई पड रहे हैं पर दिखाई कोई नहीं देता. यह देखकर मुझे स्वयं ही भय महसूस हो रहा है.
तब प्रेत बोला- हे राजन जिन मृतकों का अग्नि संस्कार, श्राद्ध तर्पण, षटपिन्ड, दशगात्र, सपिन्डीकरण नहीं होता. जो लोग अकालमृत्यु, अपमृत्यु और पापकर्मों से मरे हैं. वे सब अपने पापकर्मों से भटकते हुये प्रेतरूप मे यहां निवास करते हैं.
इनको खाना-पानी बडी मुश्किल से मिलता है. ये अत्यधिक कष्ट में पड़े रहते है. आप इनका और्ध्वदेहिक या अंत्येष्टि संस्कार करें. जिनका अपना कोई नहीं होता, उनका संस्कार राजा के द्वारा होता है. इससे राजा के बहुत से अशुभ नष्ट हो जाते हैं.
हे राजन इस संसार में कौन किस का भाई है, कौन पुत्र है, कौन किसकी स्त्री है, सभी स्वार्थ के वशीभूत है, उसमें मनुष्य को विश्वास नहीं करना चाहिये. मनुष्य अपने कर्मों का भोग स्वयं करता है.
धन,महल,परिवार सब यहीं रह जाता है. भाई बन्धु भी शमशान तक ही साथ देते हैं. शरीर भी आग की भेंट कर दिया जाता है. जीव के साथ सिर्फ़ उसका पाप पुण्य ही जाता है.
प्रेत के मुंह से ऐसे ज्ञान की बात सुनकर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ. उसने कहा- हे प्रेत! मुझे तुम्हारे बारे में जानने की जिज्ञासा हो रही. अपने बारे में विस्तार से कहो.
तब प्रेत ने कहा- हे राजन, मृत्यु से पूर्व मैं विदिशा नामक नगर में रहता था. वैश्य जाति में उत्पन्न हुआ था. उस जन्म में मेरा नाम सुदेव था. मैं खूब दान करता था. देवताओं, पितरों को नियम से हविष तर्पण आदि देता था जिससे वे संतुष्ट रहते थे.
किन्तु मेरी कोई संतान न होने से मेरे सभी पुण्य कार्य निष्फ़ल हो गये. मेरे मित्र, बन्धु-बान्धवों किसी ने भी मेरा और्ध्वदेहिक संस्कार नहीं किया इस कारण मेरा प्रेतत्व स्थिर हो गया.
हे राजन, एकादशा, त्रिपाक्षिक, षणमासिक, वार्षिक तथा मासिक जो श्राद्ध होते हैं, इनकी कुल संख्या सोलह है. जिस मृतक के लिए ये श्राद्ध नहीं किये जाते उसका प्रेतत्व अन्य सैकडों श्राद्ध करने पर भी नहीं जाता.
इस संसार में राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा गया है इसलिए आप मेरा संस्कार करके मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान कराएं. इसके लिए मैं आपको ये मणि देता हूं. हे राजन, मेरे सपिण्डों और सगोत्रों ने मेरे लिए वृषोत्सर्ग नहीं किया.
बछिया से शादी कराकर विधि विधान से सांड की पूजा करके, उस पर त्रिशूल आदि के उत्तम पवित्र निशान बनाकर उसे छुट्टा छोड़ने की वृषोत्सर्ग क्रिया न करने के चलते मैं प्रेतयोनि में भूख प्यास से बेहाल रहता हूं. इसलिये मेरा शरीर विकृत हो गया है.
हे राजन! मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि प्रेतत्व के इस कष्ट से आप मेरा उद्धार कराए. राजा ने उसे भरोसा दिलाया कि वह उसे प्रेतयोनि से मुक्ति दिलाने वाले कार्य करेगा. राजा को थोड़ी जिज्ञासा हुयी.
उसने पूछा- मुझे यह जानने की इच्छा है कि कोई मनुष्य किस प्रकार यह जान सकता है कि उसके कुल का भी कोई प्राणी प्रेत हो गया है? वह इस प्रेतत्व से मुक्त कैसे हो सकता है?
प्रेत ने बताया- हे राजन, लिंग और पीडा से प्रेत योनि का पता चलता है. इस पृथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न कुछ पीडाओं और लक्षणों को मैं आपको बता रहा हूं जिससे यह संकेत मिलता है कि उसके कुल का कोई प्रेत हो गया है.
जब स्त्रियों का ऋतुकाल निष्फ़ल हो जाता है, वंश की वृद्धि नहीं होती, अल्पायु में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है, अच्छे भले में विचित्र सी कोई परेशानी महसूस होने लगे तो उसे प्रेत पीडा मानना चाहिए.
अचानक किसी की आजीविका छिन जाती है, प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है, एकाएक घर में आग लग जाए, घर में नित्य कलह रहने लगे, जमाया व्यापार नष्ट हो जाय, हर तरफ़ से हानि हो, अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि नष्ट हो जाय, स्त्री अनुकूल न रहे तो ये सब प्रेत पीडा के लक्षण हैं.
प्रेतत्व से मुक्ति हेतु मृतक का वृषोत्सर्ग कराना परम आवश्यक होता है. यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा या आश्विन मास के मध्यकाल में करते हैं. यह संस्कार रेवती नक्षत्र से युक्त पुण्य तिथि में भी कर सकते हैं.
आपको मैं जो मणि दे रहा हूं उससे प्राप्त धन से उत्तम ब्राह्मणों को निमन्त्रित करके, विधिवत अग्नि स्थापना करके, वेदमन्त्रों से होम करके, ब्राह्मणों को भोजन कराना. इस तरह मुझे इस स्थायी प्रेतत्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी.
राजा बभ्रुवाहन ने अपने नगर में पहुंचकर ऐसा ही किया. वृषोत्सर्ग संस्कार पूरा होते ही वह प्रेत तत्काल स्वर्ण के समान देह वाला हो गया. उसने राजा के सामने उपस्थित होकर उसे प्रणाम किया.
उसने राजा बभ्रुवाहन की दयाशीलता की प्रशंसा करते हुए उनके प्रति घोर कृतज्ञता व्यक्त की और उसके बाद वह अपने पुण्यकर्मों के फ़लस्वरूप तत्काल स्वर्ग चला गया.
(गरुड़ पुराण)
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश