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हम वानर-रीक्ष आदि रामकार्य के लिए निकले हैं और भूख-प्यास से व्याकुल होकर जल की आशा से इस गुहा में चले आये हैं किन्तु यहां तो सबकुछ इस लोक का लगता ही नहीं. ऐसा प्रतीत होता है कि हम इंद्रदेव की अलकापुरी में हैं.
देवी यह सब आपकी तपस्या के प्रभाव से सिद्ध हुआ है या यह कोई आसुरी माया है? मेरी शंका समाधान करें.
तपस्विनी ने उन्हें कहा- सबसे पहले तो आप सब को यह बता दूं कि यह ऐसा मायालोक है जिसमें आने के बाद कोई भी जीव यहां से तबतक बाहर नहीं जा सकता जब तक कि इस लोक के रक्षक की आज्ञा न हो. ऐसी व्यवस्था स्वयं ब्रह्माजी ने दी है.
यह सुनकर बहुत से वानर वीर चिंता में पड़ गए. उनकी चिंता देखकर तपस्विनी ने उन्हें मधुर वचन कहे जिससे उनके मन की चिंता मिटी.
तपस्विनी बोलीं- यहां जो आ पहुंचा है वह कोई साधारण प्राणी हो ही नहीं सकता. यह तो गुप्त से भी गुप्त है. आप सब देवदूत हैं यह तो मैं समझ सकती हूं. पर यहां कैसे पहुंचे!
जितनी जिज्ञासा आपके मन में इसे जानने की है उतनी ही जिज्ञासा मुझे भी हो रही है परंतु उससे पहले आप सब भोजन-जल ग्रहण कर प्राणरक्षा करें फिर बताती हूं.
देवी की यह बात सुनकर सभी आनंदित हुए और फल-मूल आदि खाकर शीतल जल का आनंद लिया.
जब सभी भोजन से तृप्त हो गए तो तपस्विनी ने अपनी करूण कथा सुनानी शुरू की.
तेज से प्रदीप्त साध्वी ने बताया- मेरा नाम स्वयंप्रभा है. इस दिव्य सुवर्णमय उत्तम भवन को जिसे देखकर आप सब आश्चर्य में पड़े हैं उसे असुरों के विश्वकर्मा मयासुर ने बनाया है. मयासुर इस भवन में निवास करते थे.
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