एक राजा बड़ा लालची था. उसकी रियासत बड़ी थी लेकिन खजाने को भरने का लोभ इतना अधिक था कि वह जनता पर तरह-तरह के नए कर लगाया करता. प्रजा परेशान थी.

एक संत ने उस नगर में डेरा डाला. लोग उनके प्रवचन सुनन आने लगे. उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक हो गई. राजा को भी सूचना मिला. वह भी आया और संत से प्रभावित हुआ.

राजा ने संत को दरबार में आकर दरबारियों को उपदेश देने का निमंत्रण दिया. संत ने स्वीकार कर लिया. उन्होंने राजा के लोग के बारे में सुन रखा था. इसलिए उन्होंने सबसे पहले राजा को ही राह पर लाने की सोची.

संत दरबार में गए. रास्ते में से उन्होंने कुछ कंकड बीने और अपने अंगवस्त्र में लपेटकर रख लिए. वह दरबार में बैठे थे उस दौरान कंकड कपड़े में से निकलकर दरबार में बिखर गिर गए.

राजा ने पूछा- महात्माजी आपने ये कंकड क्यों साथ रखे थे. संतजी बोले- ये मेरी संपत्ति हैं. मैं इसे जमा कर रहा हूं. मरने के बाद भगवान को भेंट करूंगा इसलिए इसे सदा साथ रखता हूं.

राजा हंसा- महात्माजी मैं तो आपको बड़ा ज्ञानी समझता था. आप जैसा ज्ञानी यह कहे कि वह मरने के बाद कुछ लेकर ऊपर जा सकता है तो बड़ी हंसी आती है. ऐसा कभी होता है क्या!

संत बोले- यदि सचमुच ऐसा नहीं होता तो तुम प्रजा का खून चूसकर इता धन क्यों इकठ्ठा कर रहे हो. क्या ईश्वर की तुमपर विशेष कृपा है जो इसे साथ ले जाने का प्रबंध करेंगे.

राजा लज्जित हो गया. बात सोचने की है. तृष्णा का कोई अंत नहीं. इच्छाएं तो कहीं जाकर रूकेंगी ही नहीं. लोलुपता तो असीम है. बेहतर है धन संग्रह के बदले, पुण्य संग्रह किया जाए. एक यही सच्चा धन है जो हमारे साथ जाएगा.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

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