पिछली कथा में आपने पढ़ा कि गरुड़ ने पराक्रम दिखाते हुए देवताओं से अमृत कलश छीन लिया. उन्होंने अमृत कलश अपने कल्याण के लिए नहीं लिया था बल्कि माता को दासीत्व से मुक्त कराने के लिए लाए थे.
गरुड़ ने अमृत कलश सर्पों को दिखाते हुए कहा- मैंने तुम्हारी शर्त पूरी कर दी. यह लो अमृत, मैं इसे कुशों पर रख देता हूं. इसे पवित्र होकर पीना. अब मेरी माता दासीत्व से छूट गईं. सर्पों ने विनता को मुक्त स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक स्नान को चले गए.
इस बीच इन्द्र अमृत कलश उठाकर स्वर्ग में ले आए. लौटकर सर्पों ने देखा तो अमृत वहां नहीं था. उन्होंने समझ लिया कि हमने विनता को दासी बनाने के लिए जो कपट किया था यह उसी का यह फल है.
सर्पों ने सोचा कि कुशों पर कलश रखने से संभवतः अमृत का कुछ अंश कुशों पर लगा हो इसलिए सर्पों ने कुशों को चाटना शुरु कर दिया. ऐसा करते ही उनकी जीभ के दो-दो टुकड़े हो गए. अमृत का स्पर्श होने से कुश को पवित्र माना जाने लगा.
इसी कारण आज भी सर्पों की जीभ के दो भागों में बंटी होती है और कुश को अति पवित्र मान कर उसकी पवित्री बनाते और पूजा पाठ में प्रयोग करते हैं. गरुड़ आनंद से अपनी माता के साथ रहने लगे. वे श्रीविष्णु के वाहन पक्षीराज हुए.
सर्प अमृत के हाथ से निकल जाने से खुद को ठगा हुआ महसूस करते थे और गरुड़ के प्रति उनके मन में द्वेष बढ़ गया. वे गरूड़ को नीचा दिखाने की जुगत में रहते थे लेकिन गरूड़ की शक्ति के आगे विवश थे.
कद्रू से पुत्र ये हजार नाग एक से बढ कर एक प्रतापी और सामर्थ्यवान विषधर थे. पर गरूड़ ने इंद्र से सर्पों को अपना भोजन बनाने की व्यवस्था का वरदान मांग लिया. अतः हजारों एक साथ भी गरुड़ के सामने आने का साहस नहीं कर पाते थे.
गरुड़ के कारण सर्पों में भय हो गया और जिसे जहां स्थान मिला वह वहीं जाकर छिपा. सभी ने अळग-अलग स्थानों पर अपना संसार बसाया और कुल वृद्धि करने लगे परंतु गरूड़ से वे बच नहीं पाते थे.
इंद्र के वरदान के बाद गरुड़ सर्पों को निरंकुश भाव से खाने लगे. अंतत: सभी सर्पों ने मिलकर यह निर्णय किया कि गरुड़ को पर्याप्त मात्रा में दूसरे भोज्य पदार्थों के साथ एक सर्प सब मिलकर प्रदान करेंगे. सभी सर्प जाति ने अपना क्रम बना लिया था.
रमणक द्वीप पर रहने वाला कालिय नाग बेहद बलशाली था. उसके 101 सिर थे. उसे भ्रम हो गया कि वह गरुड़ से ज्यादा बलशाली है और वह गरूड़ को चुनौती देने के अवसर खोड रहा था.
उसने नागों द्वारा गरुड़ को प्रदान किए गए भोजन को स्वयं ग्रहण कर लिया और गरूड़ को कुछ भी देने से साफ मना कर दिया. कुपित गरुड़ ने कालिया पर आक्रमण किया. कालिया जब युद्ध में परास्त होने लगा तो उसे गरुड़ से संबंधित एक कथा स्मरण हो आयी.
एक बार गरुड भूखे होने पर भोजन की खोज में मछलियों से भरे एक जलकुंड को देख वहां उतरे. यह यमुना नदी का कुंड था. गरुड़ ने वहां की मछ्लियों का भक्षण आरंभ किया. ऐसा लगता था कि गरूड़ उस दिन कुंड की सारी मछलियां खा जाएंगे.
मत्स्यों का राजा सौभरि ऋषि के पास पहुंचा. वह कुंड सौभरि ऋषि द्वारा रक्षित था.
मत्स्यराज ने बताया कि गरुड़ आज्ञा से अधिक आहार ले रहे हैं. कुंड मत्स्यविहीन होकर तो गंदा हो जाएगा. ऋषि के स्नान में बाधा होगी.
सौभरि मुनि ने गरूड़ को समझाया कि अब तुम यहां से चले जाओ और अन्यत्र आहार की खोज करो लेकिन गरूड़ खुद को रोक नहीं पाए और मत्स्य राज को भी खा लिया. अपने शरणागत की रक्षा न कर पाने से सौभरि क्रोधित हो गए.
उन्होंने गरुड़ को शाप दिया कि गरूड यदि भविष्य में तुम कभी इस कुंड या दह में प्रवेश करोगे तो प्राण निकल जाएंगे. यमुना के उस कुंड में गरूड नहीं घुस सकते यह सोच कालिया रमणक द्वीप छोड़ कर उस कुंड में आ बसा.
उसके साथ उसकी हजारों रानियां और सेवक भी आए. कालिय के विष से कुंड के वृक्ष-लता सभी जलकर भस्म हो गए. बस एक कदम्ब का पेड़ ही वहां बचा हुआ था जो हरा भरा और विशाल था.
यह कदम्ब पेड़ इसलिए बचा रह गया क्योंकि देवताओँ से छीनकर अमृत कलश लाते समय गरुड़ ने इसी कदम्ब पर विश्राम किया था. अमृत की कुछ बूंदे इस कदम्ब के पेड़ पर गिर गईं थीं. इसलिए उस पर कालिया के विष का प्रभाव नहीं पड़ा था.
श्रीकृष्ण उसी कदंब के वृक्ष से कालिय दह में कूदे थे और कालियानाग के मस्तक पर नृत्य करके उसके मानमर्दन किया था. प्रभु ने उसे गरूड़ से अभय का वरदान दिया और वापस रमणक द्वीप भेज दिया.
गरूड़ ने भी कालिया के मस्तक पर श्रीकृष्ण के पैरों के चिह्न अंकित देखे तो उसे क्षमा कर दिया. कालिया अपने कुटुंब के साथ रमणक द्वीप में निवास करने लगा. शेष नागों का अंत जनमेजय के सर्प यज्ञ में होने लगा जिसकी कथा आप भागवत में सुन चुके हैं.
संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश