रूद्र संहिताः द्वितीय (सती खंड) आरंभः
नारद ने ब्रह्मा से पूछा-शिवजी का जो चरित अब तक सुनाया उसके बाद मन में एक प्रश्न आया है. शिवजी गृहस्थी से एक बार विरक्त होने के बाद पुनः गृहस्थ बनने को कैसे माने? एक ही शरीर से भगवती उमा दक्षपुत्री और हिमालय पुत्री कैसे बनीं?
ब्रह्माजी बोले- पूर्वकाल में संध्या नामक मानसपुत्री पर मैं मोहित हो गया था. शिवजी ने आकर मर्यादा रक्षा की और मेरी बहुत निंदा की. मैं तो शिवजी की माया से मोहित था. मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था.
संध्या को भी मेरा यह आचरण सहन नहीं हुआ. अपने पिता को मोहित करने वाले अत्यंत सुंदर शरीर से उसे घृणा हुई और उसने योगाग्नि में जलाने का प्रयास किया. शिवजी उसकी मनोस्थिति को समझ गए.
उन्होंने संध्या को तप द्वारा आत्मशुद्धि का विचार जागृत करने को कहा. साध्वी संध्या चंद्रभागा नदी के उदगम स्थल चंद्रभाग पर्वत पर जाकर कठिन तप करने लगी. मैंने वशिष्ठ को आदेश दिया कि वह जाकर तप में लीन संध्या का वरण करें.
वास्तव में संध्या के मन की पीड़ा एक और थी. उसे अपने रचयिता ब्रह्मा नारीदेह रचना में एक त्रुटि को लेकर दुख था. संध्या क्षुब्ध थी कि उसके जन्म लेने के बाद स्वयं उसके मन में भी कामसुख भोगने की इच्छा व्याकुल करने लगी थी.
संध्या नहीं चाहती थी कि युवावस्था को प्राप्त करने से पूर्व किसी कन्या में कामसुख की लालसा पैदा हो. वशिष्ठ ब्रह्मचारी का वेष धरकर संध्या के पास गए. उन्होंने संध्या का परिचय और तप का उद्देश्य पूछा.
संध्या ने कहा कि वह ब्रह्मा की पुत्री हैं. अपने मन में उत्पन्न कलुषित विचारों से दुखी होकर मानसिक शांति के लिए यहां तप कर रही हूं. वशिष्ठ बोले- हम सभी ब्रह्मा की संतान हैं क्योंकि भगवान ने उन्हें सृष्टि रचना को भेजा है.
परमात्मा के आदेश पर सृष्टि की रचना का कार्य हो रहा है. ब्रह्माजी ने हमारी रचना अपनी कल्पना के आधार पर की. उन्हें भी नहीं पता था कि वह जो बनाने वाले हैं उसका परिणाम क्या होगा. हर रचना में विकास का क्रम होता है.
वशिष्ठ ने कहा- तप उत्तम साधन है. इससे आपके प्रश्नों का उत्तर और मार्ग दोनों मिल जाएंगे. मैं आपको शिवजी को प्रसन्न करने के मंत्र और साधन बताता हूं. आप इसका पालन करते हुए शिवकृपा प्राप्त करें.
संध्या ने वशिष्ठ द्वारा बताए मंत्र से शिवजी का ध्यान किया और शिव प्रसन्न हो गए. संध्या के नेत्र शिवजी के तेज को सहन नहीं कर पाए और उसने आंखें मूंद ली. शिवजी भक्त के हृद्य में प्रवेश कर गए. तब संध्या ने उनका दर्शन और स्तुति की.
संध्या की स्तुति से प्रसन्न शिवजी ने उससे इच्छित वरदान मांगने को कहा. संध्या ने मांगा- प्रभु युवावस्था से पूर्व किसी के मन में भी कामेच्छा जागृत न हो. उसके मन में काम उत्पन्न न हो और वह पथभ्रष्ट न हो. शिवजी ने वरदान दे दिया.
शिवजी से वरदान प्राप्तकर संध्या मेधा मुनि की यज्ञशाला में पहुंची. मुनि ने उनकी साधना की बात सुनी तो बड़े प्रसन्न हुए औऱ उन्हें पुत्रीरूप में स्वीकार कर लिया. उसके बाद मुनि ने उसे अरुंधति नाम दिया और वशिष्ठ से विवाह कर दिया.
अंरूधति और वशिष्ठ के विवाह का प्रसंग सुनाने के बाद ब्रह्माजी ने नारद से कहा- पुत्र मैं तो शिवजी के मोह से ग्रस्त पथभ्रष्ट हुआ औऱ शिवजी ने ही मेरी रक्षा भी की. किंतु इसके बाद शिवजी ने मेरी बड़ी निंदा की. मेरा बहुत उपहास किया.
इस निंदा-उपहास से मैं बहुत दुखी और लज्जित था. यह स्वाभाविक भी था. मैं शिवजी से नाराज था. मेरा रोष धीरे-धीरे वैर और फिर प्रतिशोध का रूप धारण करता चला गया. माया से पुनः ग्रसित और शिवजी से प्रतिशोध लेने की बात मन में चलने लगी.
ब्रह्माजी ने महादेव से प्रतिशोध लेने के लिए क्या किया? शिवजी के विवाह से उस प्रतिशोध का क्या संबंध था. यह अगली पोस्ट में शीघ्र ही.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश